Preliminary Texts
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।।श्रीः।। |
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भगवन्किमुपादेयं गुरुवचनं हेयमपि च किमकार्यम्। |
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त्वरितं किं कर्तव्यं विदुषां संसारसंततिच्छेदः। |
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कः पथ्यतरो धर्मः कः शुचिरिह यस्य मानसं शुद्धम्। |
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किं संसारे सारं बहुशोऽपि विचिन्त्यमानमिदमेव। |
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मदिरेव मोहजनकः कः स्नेहः के च दस्यवो विषयाः। |
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कस्माद्भयमिह मरणादन्धादिह को विशिष्यते रागी। |
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पातुं कर्णाञ्जलिभिः किममृतमिह युज्यते सदुपदेशः। |
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किं गहनं स्त्रीचरितं कश्चतुरो यो न खण्डितस्तेन। |
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किं जीवितमनवद्यं किं जाड्यं पाठतोऽप्यनभ्यासः। |
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नलिनीदलगतजलवत्तरलं किं यौवनं धनं चायुः। |
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को नरकः परवशता किं सौख्यं सर्वसङ्गविरतिर्या। |
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कोऽनर्थफलो मानः का सुखदा साधुजनमैत्री। |
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किं मरणं मूर्खत्वं किं चानर्घं यदवसरे दत्तम्। |
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कुत्र विधेयो यत्नो विद्याभ्यासे सदौषधे दाने। |
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काहर्निशमनुचिन्त्या संसारासारता न तु प्रमदा। |
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कण्ठगतैरप्यसुभिः कस्य ह्यात्मा न शक्यते जेतुम्। |
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कः साधुः सद्वृत्तः कमधममाचक्षते त्वसद्वृत्तम्। |
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कस्मै नमांसि देवाः कुर्वन्ति दयाप्रधानाय। |
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कस्य वशे प्राणिगणः सत्यप्रियभाषिणो विनीतस्य। |
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कोऽन्धो योऽकार्यरतः को बधिरो यो हितानि न श्रृणोति। |
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किं दानमनाकाङ्क्षं किं मित्रं यो निवारयति पापात्। |
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विद्युद्विलसितचपलं किं दुर्जनसंगतिर्युवतयश्च। |
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चिन्तामणिरिव दुर्लभमिह किं कथयामि तच्चतुर्भद्रम्। |
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दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्व क्षमान्वितं शौर्यम्। |
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किं शोच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्तमौदार्यम्। |
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कः कुलकमलदिनेशः सति गुणविभवेऽपि यो नम्रः। |
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विद्वन्मनोहरा का सत्कविता बोधवनिता च। |
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कस्मै स्पृहयति कमला त्वनलसचित्ताय नीतिवृत्ताय। |
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कुत्र विधेयो वासः सज्जननिकटेऽथवा काश्याम्। |
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केनाशोच्यः पुरुषः प्रणतकलत्रेण धीरविभवेन। |
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किं लघुताया मूलं प्राकृतपुरुषेषु या या़च्ञा। |
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किमहर्निशमनुचिन्त्यं भगवच्चरणं न संसारः। |
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कः पङ्गुरिह प्रथितो व्रजति च यो वार्धके तीर्थम्। |
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किं स्मर्तव्यं पुरुषैर्हरिनाम सदा न यावनी भाषा। |
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किं संपाद्यं मनुजैर्विद्या वित्तं बलं यशः पुण्यम्। |
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का च सभा परिहार्या हीना या वृद्धसचिवेन। |
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प्राणादपि को रम्यः कुलधर्मः साधुसङ्गश्च। |
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का कल्पलता लोके सच्छिष्यायार्पिता विद्या। |
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किं शस्त्रं सर्वेषां युक्तिर्माता च का धेनुः। |
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कुत्र विषं दुष्टजने किमिहाशौचं भवेदृणं नणाम्। |
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का दुर्लभा नराणां हरिभक्तिः पातकं च किं हिंसा। |
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कस्मात्सिद्धिस्तपसो बुद्धिः क्व नु भूसुरे कुतो बुद्धिः। |
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संभावितस्य मरणादधिकं किं दुर्यशो भवति। |
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सर्वसुखानां बीजं किं पुण्यं दुःखमपि कुतः पापात्। |
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को वर्धते विनीतः को वा हीयेत यो दृप्तः। |
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कुत्रानृतेऽप्यपापं यच्चोक्तं धर्मरक्षार्थम्। |
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साधुबलं किं दैवं कः साधुः सर्वदा तुष्टः। |
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गृहमेधिनश्च मित्रं किं भार्या को गृही च यो यजते। |
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कस्य क्रिया हि सफला यः पुनराचारवाञ्शिष्टः। |
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को धन्यः संन्यासी को मान्यः पण्डितः साधुः। |
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किं भाग्यं देहवतामारोग्यं कः फली कृषिकृत्। |
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किं दुष्करं नराणां यन्मनसो निग्रहः सततम्। |
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का च परदेवतोक्ता चिच्छक्तिः को जगत्भर्ता। |
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कः शूरो यो भीतत्राता त्राता च कः स गुरुः। |
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मुक्तिं लभेत कस्माद्मुकुन्दभक्तेर्मुकुन्दः कः। |
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कस्य न शोको यः स्यादक्रोधः किं सुखं तुष्टिः। |
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को मायी परमेशः क इन्द्रजालायते प्रपञ्चोऽयम्। |
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किं मिथ्या यद्विद्यानाश्यं तुच्छं तु शशविषाणादि। |
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किं पारमार्थिकं स्यादद्वैतं चाज्ञता कुतोऽनादिः। |
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को ब्राह्मणैरुपास्यो गायत्र्यर्काग्निगोचरः शंभुः। |
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प्रत्यक्षदेवता का माता पूज्यो गुरुश्च कस्तातः। |
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कश्च कुलक्षयहेतुः संतापः सज्जनेषु योऽकारि। |
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किं जन्म विषयसङ्गः किमुत्तरं जन्म पुत्रः स्यात्। |
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पात्रं किमन्नदाने क्षुधितं कोऽर्च्यो हि भगवदवतारः। |
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फलमपि भगवद्भक्तेः किं तल्लोकस्वरूपसाक्षात्त्वम्। |
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इत्येषा कण्ठस्था प्रश्नोत्तररत्नमालिका येषाम्। |