Preliminary Texts
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।।श्रीः।। |
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बोधोऽन्यसाधनेभ्यो हि साक्षान्मोक्षैकसाधनम्। |
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अविरोधितया कर्म नाविद्यां विनिवर्तयेत्। |
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अवच्छिन्न इवाज्ञानात्तन्नाशे सति केवलः। |
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अज्ञानकलुषं जीवं ज्ञानाभ्यासाद्विनिर्मलम्। |
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संसारः स्वप्नतुल्यो हि रागद्वेषादिसंकुलः। |
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तावत्सत्यं जगद्भाति शुक्तिकारजतं यथा। |
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उपादानेऽखिलाधारे जगन्ति परमेश्वरे। |
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सच्चिदात्मन्यनुस्यूते नित्ये विष्णौ प्रकल्पिताः। |
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यथाकाशो हृषीकेशो नानोपाधिगतो विभुः। |
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नानोपाधिवशादेव जातिनामाश्रमादयः। |
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पञ्चीकृतमहाभूतसंभवं कर्मसंचितम्। |
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पञ्चप्राणमनोबुद्धिदशेन्द्रियसमन्वितम्। |
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अनाद्यविद्यानिर्वाच्या कारणोपाधिरुच्यते। |
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पञ्चकोशादियोगेन तत्तन्मय इव स्थितः। |
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वपुस्तुषादिभिः कोशैर्युक्तं युक्त्यवघाततः। |
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सदा सर्वगतोऽप्यात्मा न सर्वत्रावभासते। |
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देहेन्द्रियमनोबुद्धिप्रकृतिभ्यो विलक्षणम्। |
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व्यापृतेष्विन्द्रियेष्वात्मा व्यापारीवाविवेकिनाम्। |
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आत्मचैतन्यमाश्रित्य देहेन्द्रियमनोधियः। |
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देहेन्द्रियगुणान्कर्माण्यमले सच्चिदात्मनि। |
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अज्ञानान्मानसोपाधेः कर्तृत्वादीनि चात्मनि। |
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रागेच्छासुखदुःखादि बुद्धौ सत्यां प्रवर्तते। |
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प्रकाशोऽर्कस्य तोयस्य शैत्यमग्नेर्यथोष्णता। |
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आत्मनः सच्चिदंशश्च बुद्धेर्वृत्तिरिति द्वयम्। |
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आत्मनो विक्रिया नास्ति बुद्धेर्बोधो न जात्विति। |
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रज्जुसर्पवदात्मानं जीवं ज्ञात्वा भयं वहेत्। |
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आत्मावभासयत्येको बुद्ध्यादीनीन्द्रियाणि हि। |
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स्वबोधे नान्यबोधेच्छा बोधरूपतयात्मनः। |
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निषिध्य निखिलोपाधीन्नेति नेतीति वाक्यतः। |
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आविद्यकं शरीरादि दृश्यं बुद्बुदवत्क्षरम्। |
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देहान्यत्वान्न मे जन्मजराकार्श्यलयादयः। |
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अमनस्त्वान्न मे दुःखरागद्वेषभयादयः। |
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निर्गुणो निष्क्रियो नित्यो निर्विकल्पो निरञ्जनः। |
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अहमाकाशवत्सर्वं बहिरन्तर्गतोऽच्युतः। |
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नित्यशुद्धविमुक्तैकमखण्डानन्दमद्वयम्। |
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एवं निरन्तरकृता ब्रह्मैवास्मीति वासना। |
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विविक्तदेश आसीनो विरागो विजितेन्द्रियः। |
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आत्मन्येवाखिलं दृश्यं प्रविलाप्य धिया सुधीः। |
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रूपवर्णादिकं सर्वं विहाय परमार्थवित्। |
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ज्ञातृज्ञानज्ञेयभेदः परे नात्मनि विद्यते। |
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एवमात्मारणौ ध्यानमथने सततं कृते। |
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अरुणेनेव बोधेन पूर्वं संतमसे हृते। |
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आत्मा तु सततं प्राप्तोऽप्यप्राप्तवदविद्यया। |
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स्थाणौ पुरुषवद्भ्रान्त्या कृता ब्रह्मणि जीवता। |
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तत्त्वस्वरूपानुभवादुत्पन्नं ज्ञानमञ्जसा। |
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सम्यग्विज्ञानवान्योगी स्वात्मन्येवाखिलं स्थितम्। |
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आत्मैवेदं जगत्सर्वमात्मनोऽन्यन्न किंचन। |
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जीवन्मुक्तस्तु तद्विद्वान्पूर्वोपाधिगुणांस्त्यजेत्। |
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तीर्त्वा मोहार्णवं हत्वा रागद्वेषादिराक्षसान्। |
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बाह्यानित्यसुखासक्तिं हित्वात्मसुखनिर्वृतः। |
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उपाधिस्थोऽपि तद्धर्मैरलिप्तो व्योमवन्मुनिः। |
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उपाधिविलयाद्विष्णौ निर्विशेषं विशेन्मुनिः। |
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यल्लाभान्नापरो लाभो यत्सुखान्नापरं सुखम्। |
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यद्दृष्ट्वा नापरं दृश्यं यद्भूत्वा न पुनर्भवः। |
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तिर्यगूर्ध्वमधः पूर्णं सच्चिदानन्दमद्वयम्। |
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अतद्व्यावृत्तिरूपेण वेदान्तैर्लक्ष्यतेऽव्ययम्। |
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अखण्डानन्दरूपस्य तस्यानन्दलवाश्रिताः। |
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तद्युक्तमखिलं वस्तु व्यवहारश्चिदन्वितः। |
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अनण्वस्थूलमह्रस्वमदीर्घमजमव्ययम्। |
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यद्भासा भास्यतेऽर्कादि भास्यैर्यत्तु न भास्यते। |
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स्वयमन्तर्बहिर्व्याप्य भासयन्नखिलं जगत्। |
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जगद्विलक्षणं ब्रह्म ब्रह्मणोऽन्यन्न किंचन। |
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दृश्यते श्रूयते यद्यद्ब्रह्मणोऽन्यन्न तद्भवेत्। |
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सर्वगं सच्चिदानन्दं ज्ञानचक्षुर्निरीक्षते। |
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श्रवणादिभिरुद्दीप्त |
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हृदाकाशोदितो ह्यात्मा |
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दिग्देशकालाद्यनपेक्ष्य सर्वगं |