Devotional Hyms - Devi
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।।श्रीः।। |
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अकिंचित्करकर्मभ्यः प्रत्याहृत्य कृपावशात्। |
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अकारादिक्षकारान्तवर्णावयवशालिनी। |
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या वर्णपदवाक्यार्थगद्यपद्यस्वरूपिणी। |
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उपास्यमाना विप्रेन्द्रैः सन्ध्यासु च तिसृष्वपि। |
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मन्दा निन्दालोलुपाहं स्वभावा |
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तरङ्गभ्रुकुटीकोटिभङ्ग्या तर्जयते जराम्। |
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तस्य मध्ये मणिद्वीपः कल्पकारामभूषितः। |
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कदम्बमञ्जरीनिर्यद्वारुणीपारणोन्मदैः। |
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तत्र वप्रावली लीला गगनोल्लङ्घिगोपुरम्। |
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पकरन्दझरीमज्जन्मिलिन्दकुलसंकुलाम्। |
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तत्रैव चिन्तामणिधोरणार्चिभि |
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मुनिभिः स्वात्मलाभाय यच्चक्रं हृदि सेव्यते। |
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पञ्चब्रह्ममयो मञ्चस्तत्र यो बिन्दुमध्यगः। |
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नानारत्नगुलुच्छालीकान्तिकिम्मीलितोदरम्। |
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पर्यङ्कतल्पोपरि दर्शनीयं |
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जटारुणं चन्द्रकलाललामं |
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तत्र कामेशवामाङ्के खेलन्तीमलिकुन्तलाम्। |
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चारुगोरोचनापङ्कजम्बालितघनस्तनीम्। |
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शिवे नमन्निर्जरकुञ्जरासुर |
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कल्पस्यादौ कारणेशानपि त्री |
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केशोद्भूतैरद्भुतामोदपूरै |
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अर्धोन्मीलद्यौवनोद्दामदर्पां |
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कल्हारश्रीमञ्जरीपुञ्जरीतिं |
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देवतान्तरमन्त्रौघजपश्रीफलभूतया। |
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पुंस्कोकिलकलक्वाणकोमलालापशालिनि। |
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अन्तेवासिन्नस्ति चेत्ते मुमुक्षा |
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षोढान्यासादिदेवैश्च सेविता चक्रमध्यगा। |
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शान्तो दान्तो देशिकेन्द्रं प्रणम्य |
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त्वमेव कारणं कार्यं क्रिया ज्ञानं त्वमेव च। |
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परागमद्रीन्द्रसुते तवाङ्घ्रि |
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दुष्टान्दैत्यान्हन्तुकामां महर्षी |
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देवि सर्वानवद्याङ्गि त्वामनादृत्य ये क्रियाः। |
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नाहं मन्ये दैवतं मान्यमन्य |
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कुर्वाणोऽपि दुरारम्भांस्तव नामानि शांभवि। |
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कल्याणि त्वं कुन्दहासप्रकाशै |
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तितीर्षया भवाम्भोधेर्हयग्रीवादयः पुरा। |
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मद्वश्या ये दुराचारा ये च सन्मार्गगामिनः। |
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श्रीचक्रस्थां शाश्वतैश्वर्यदात्रीं |
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भवानि तव पादाब्जनिर्णेजनपवित्रताः। |
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चिदानन्दसुधाम्भोधेस्तवानन्दलवोऽस्ति यः। |
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नो वा यागैर्नैव पूर्तादिकृत्यै |
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प्रातः पाहि महाविद्ये मध्याह्ने तु मृडप्रिये। |
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बन्धूकाभैर्भानुभिर्भासयन्ती |
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कर्णाकर्णय मे तत्त्वं या चिच्छक्तिरितीर्यते। |
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वाग्देवीति त्वां वदन्त्यम्ब केचि |
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ललितेति सुधापूरमाधुरीचोरमम्बिके। |
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ये संपन्नाः साधनैस्तैश्चतुर्भिः |
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अभिचारादिभिः कृत्यां यः प्रेरयति मय्युमे। |
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जगत्पवित्रि मामिकामपाहराशु दुर्जराम्। |
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कदम्बारुणमम्बाया रूपं चिन्तय चित्त मे। |
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भण्डभण्डनलीलायां रक्तचन्दनपङ्किलः। |
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रे रे चित्त त्वं वृधा शोकसिन्धौ |
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चञ्चद्बालातपज्योत्स्नाकलामण्डलशालिने। |
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तामेवाद्यां ब्रह्मविद्यामुपासे |
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शरणं करवाण्यम्ब चरणं तव सुन्दरि। |
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रत्नच्छत्रैश्चामरैर्दर्पणाद्यै |
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दरिद्रं मां विजानीहि सर्वज्ञासि यतः शिवे। |
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महेश्वरि महामन्त्रकूटत्रयकलेबरे। |
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मूलाधारादूर्ध्वमन्तश्चरन्तीं |
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मह्यं द्रुह्यन्ति ये मातस्त्वद्ध्यानासक्तचेतसे। |
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त्वद्भक्तानामम्ब शान्तैषणानां |
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सन्तु विद्या जगत्यस्मिन्संसारभ्रमहेतवः। |
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विद्वन्मुख्यैर्विद्रुमाभं विशाल |
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न विस्मरामि चिन्मूर्तिमिक्षुकोदण्डशालिनीम्। |
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चक्षुःप्रेङ्खत्प्रेमकारुण्यधारां |
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मुञ्च वञ्चकतां चित्त पामरं चापि दैवतम्। |
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का मे भीतिः का क्षतिः किं दुरापं |
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चिन्तामणिमयोत्तंसकान्तिकञ्चुकितानने। |
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तारुण्योत्तुङ्गितकुचे लावण्योल्लासितेक्षणे। |
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आकर्णाकृष्टकामास्त्रसंजातं तापमम्ब मे। |
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कुर्वे गर्वेणापचारानपारा |
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यथोपास्तिक्षतिर्न स्यात्तव चक्रस्य सुन्दरि। |
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चक्रं सेवे तारकं सर्वसिध्यै |
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सुकुमारे सुखाकारे सुनेत्रे सूक्ष्ममध्यमे। |
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विद्युद्वल्लकन्दलीं कल्पयन्तीं |
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अविज्ञाय परां शक्तिमात्मभूतां महेश्वरीम्। |
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सिन्दूराभैः सुन्दरैरंशुबृन्दै |
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तव तत्त्वं विमृशतां प्रत्यगद्वैतलक्षणम्। |
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कण्ठात्कुण्डलिनीं नीत्वा सहस्रारं शिवे तव। |
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त्वत्पादुकानुसंधानप्राप्तसर्वात्मतादृशि। |
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तवानुग्रहनिर्भिन्नहृदयग्रन्थिरद्रिजे। |
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कदा वसुदलोपेते त्रिकोणनवकान्विते। |
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ह्रीमित्येकं तावकं वाचकार्णं |
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नाकस्त्रीणां किन्नरीणां नृपाणा |
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नूनं सिंहासनेश्वर्यास्तवाज्ञां शिरसा वहन्। |
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त्रिकलाढ्यां त्रिहृल्लेखां द्विहंसस्वरभूषिताम्। |
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दारिद्रयाब्धौ देवि मग्नोऽपि शश्व |
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यो वा यद्यत्कामनाकृष्टचित्तः |
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साधकः सततं कुर्यादैक्यं श्रीचक्रदेहयोः। |
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हस्ताम्भोजप्रोल्लसच्चामराभ्यां |
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इष्टानिष्टप्राप्तिविच्छित्तिहेतुः |
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हरस्वरैश्चतुर्वर्गपदं मन्त्रं सबिन्दुकम्। |
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यस्ते राकाचन्द्रबिम्बासनस्थां |
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तुभ्यं मातर्योऽञ्जलिं मूर्ध्नि धत्ते |
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वैरिञ्चोघैर्विष्णुरुद्रेन्द्रबृन्दै |
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भूत्यै भवानि त्वां वन्दे सुराः शतमखादयः। |
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पुष्पवत्पुल्लताटङ्कां प्रातरादित्यपाटलाम्। |
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वश्ये विद्रुमसंकाशां विद्यायां विशदप्रभाम्। |
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वामाङ्कस्थामीशितुर्दीप्यमानां |
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नवनीपवनीवासलालसोत्तरमानसे। |
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भक्त्याभक्त्या वापि पद्यावसान |
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बालिशेन मया प्रोक्तमपि वात्सल्यशालिनोः। |
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माधुरीसौरभावासचापसायकधारिणीम्। |
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स्तोत्रमेतत्प्रजपतस्तव त्रिपुरसुन्दरि। |
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यः पठति स्तुतिमेतां |
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ये शृण्वन्ति स्तुतिमिमां तव देव्यनसूयकाः। |
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त्वामेवाहं स्तौमि नित्यं प्रणौमि |
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शंकरेण रचितं स्तवोत्तमं |
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यत्रैव यत्रैव मनो मदीयं |