Comprehensive Texts
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।।श्रीः।। |
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जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता |
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दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्। |
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लब्ध्वा कथंचिन्नरजन्म दुर्लभं |
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इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति। |
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पठन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवा |
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अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेनेत्येव हि श्रुतिः। |
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अतो विमुक्त्यै प्रयतेत विद्वा |
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उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ। |
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संन्यस्य सर्वकर्माणि भवबन्धविमुक्तये। |
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चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये। |
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सम्यग्विचारतः सिद्धा रज्जुतत्त्वावधारणा। |
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अर्थस्य निश्चयो दृष्टो विचारेण हितोक्तितः। |
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अधिकारिणमाशास्ते फलसिद्धिर्विशेषतः। |
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अतो विचारः कर्तव्यो जिज्ञासोरात्मवस्तुनः। |
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मेधावी पुरुषो विद्वानूहापोहविचक्षणः। |
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विवेकिनो विरक्तस्य शमादिगुणशालिनः। |
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साधनान्यत्र चत्वारि कथितानि मनीषिभिः। |
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आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते। |
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शमादिषट्कसंपत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति स्फुटम्। |
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सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः। |
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देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोग्यवस्तुनि। |
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स्वलक्ष्ये नियतावस्था मनसः शम उच्यते। |
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उभयेषामिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः। |
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सहनं सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम्। |
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शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य सत्यबुद्ध्यावधारणा। |
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सम्यगास्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्रह्मणि सर्वदा। |
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अहंकारादिदेहान्तान्बन्धानज्ञानकल्पितान्। |
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मन्दमध्यमरूपापि वैराग्येण शमादिना। |
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वैराग्यं च मुमुक्षुत्वं तीव्रं यस्य तु विद्यते। |
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एतयोर्मन्दता यत्र विरक्तत्वमुमुक्षयोः। |
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मोक्षकारणसामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी। |
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स्वात्मतत्त्वानुसंधानं भक्तिरित्यपरे जगुः। |
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उपसीदेद्गुरुं प्राज्ञं यस्माद्बन्धविमोक्षणम्। |
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ब्रह्मण्युपरतः शान्तो निरिन्धन इवानलः। |
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तमाराध्य गुरुं भक्त्या प्रह्वः प्रश्रयसेवनैः। |
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स्वामिन्नमस्ते नतलोकबन्धो |
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दुर्वारसंसारदवाग्नितप्तं |
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शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो |
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अयं स्वभावः स्वत एव यत्पर |
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ब्रह्मानन्दरसानुभूतिकलितैः पूतैः सुशीतैः सितै |
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कथं तरेयं भवसिन्धुमेतं |
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तथा वदन्तं शरणागतं स्वं |
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विद्वान्स तस्मा उपसत्तिमीयुषे |
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मा भैष्ट विद्वंस्तव नास्त्यपायः |
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अस्त्युपायो महान्कश्चित्संसारभयनाशनः। |
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वेदान्तार्थविचारेण जायते ज्ञानमुत्तमम्। |
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श्रद्धाभक्तिध्यानयोगान्मुमुक्षो |
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अज्ञानयोगात्परमात्मनस्तव |
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शिष्य उवाच -- |
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को नाम बन्धः कथमेष आगतः |
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श्रीगुरुरुवाच -- |
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ऋणमोचनकर्तारः पितुः सन्ति सुतादयः। |
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मस्तकन्यस्तभारादेर्दुःखमन्यैर्निवार्यते। |
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पथ्यमौषधसेवा च क्रियते येन रोगिणा। |
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वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा |
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अविद्याकामकर्मादिपाशबन्धं विमोचितुम्। |
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न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्यया। |
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वीणाया रूपसौन्दर्यं तन्त्रीवादनसौष्ठवम्। |
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वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्। |
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अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला। |
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शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्। |
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अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रह्मज्ञानौषधं विना। |
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न गच्छति विना पानं व्याधिरौषधशब्दतः। |
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अकृत्वा दृश्यविलयमज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः। |
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अकृत्वा शत्रुसंहारमगत्वाखिलभूश्रियम्। |
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आप्तोक्तिं खननं तथोपरिशिलापाकर्षणं स्वीकृतिं |
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तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भवबन्धविमुक्तये। |
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यस्त्वयाद्य कृतः प्रश्नो वरीयाञ्शास्त्रविन्मतः। |
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श्रृणुष्वावहितो विद्वन् यन्मया समुदीर्यते। |
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मोक्षस्य हेतुः प्रथमो निगद्यते |
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ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्त्व |
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यद्बोद्धव्यं तवेदानीमात्मानात्मविवेचनम्। |
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मज्जास्थिमेदःपलरक्तचर्मत्वगाह्वयैर्धातुभिरेभिरन्वितम्। |
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अहं ममेति प्रथितं शरीरं |
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परस्परांशैर्मिलितानि भूत्वा |
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य एषु मूढा विषयेषु बद्धा |
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शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पञ्च |
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दोषेण तीव्रो विषयः कृष्णसर्पविषादपि। |
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विषयाशामहापाशाद्यो विमुक्तः सुदुस्त्यजात्। |
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आपातवैराग्यवतो मुमुक्षू |
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विषयाख्यग्रहो येन सुविरक्त्यसिना हतः। |
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विषमविषयमार्गे गच्छतोऽनच्छबुद्धेः |
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मोक्षस्य का़ङ्क्षा यदि वै तवास्ति |
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अनुक्षणं यत्परिहृत्य कृत्य |
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शरीरपोषणार्थी सन्य आत्मानं दिदृक्षते। |
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मोह एव महामृत्युर्मुमुक्षोर्वपुरादिषु। |
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मोहं जहि महामृत्युं देहदारसुतादिषु। |
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त्वङ्मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंकुलम्। |
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पञ्चीकृतेभ्यो भूतेभ्यः स्थूलेभ्यः पूर्वकर्मणा। |
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बाह्येन्द्रियैः स्थूलपदार्थसेवां |
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सर्वोऽपि बाह्यः संसारः पुरुषस्य यदाश्रयः। |
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स्थूलस्य संभवजरामरणानि धर्माः |
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बुद्धीन्द्रियाणि श्रवणं त्वगक्षि |
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निगद्यतेऽन्तःकरणं मनो धी |
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अत्राभिमानादहमित्यहंकृतिः |
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प्राणापानव्यानोदानसमाना भवत्यसौ प्राणः। |
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वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च |
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इदं शरीरं श्रृणु सूक्ष्मसंज्ञितं |
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स्वप्नो भवत्यस्य विभक्त्यवस्था |
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धीमात्रकोपाधिरशेषसाक्षी |
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सर्वव्यापृतिकरणं लिङ्गमिदं स्याच्चिदात्मनः पुंसः। |
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अन्धत्वमन्दत्वप़टुत्वधर्माः |
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उच्छवासनिःश्वासविजृम्भणक्षुत |
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अन्तःकरणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि। |
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अहंकारः स विज्ञेयः कर्ता भोक्ताभिमान्ययम्। |
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विषयाणामानुकूल्ये सुखी दुःखी विपर्यये। |
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आत्मार्थत्वेन हि प्रेयान्विषयो न स्वतः प्रियः। |
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तत आत्मा सदानन्दो नास्य दुःखं कदाचन। |
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अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति |
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सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो |
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शुद्धाद्वयब्रह्मविबोधनाश्या |
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विक्षेपशक्ती रजसः क्रियात्मिका |
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कामः क्रोधो लोभदम्भाभ्यसूया |
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एषावृतिर्नाम तमोगुणस्य |
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प्रज्ञावानपि पण्डितोऽपि चतुरोऽप्यत्यन्तसूक्ष्मार्थदृ |
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अभावना वा विपरीतभावना |
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अज्ञानमालस्यजडत्वनिद्रा |
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सत्त्वं विशुद्धं जलवत्तथापि |
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मिश्रस्य सत्त्वस्य भवन्ति धर्मा |
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विशुद्धसत्त्वस्य गुणाः प्रसादः |
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अव्यक्तमेतत्ित्रगुणैर्निरुक्तं |
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सर्वप्रकारप्रमितिप्रशान्ति |
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देहेन्द्रियप्राणमनोहमादयः |
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माया मायाकार्यं सर्वं महदादि देहपर्यन्तम्। |
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अथ ते संप्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः। |
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अस्ति कश्चित्स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः। |
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यो विजानाति सकलं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु। |
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यः पश्यति स्वयं सर्वं यं न व्याप्नोति किंचन। |
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येन विश्वमिदं व्याप्तं यं न व्याप्नोति किंचन। |
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यस्य संनिधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः। |
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अहंकारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः। |
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एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो |
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अत्रैव सत्त्वात्मनि धीगुहाया |
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ज्ञाता मनोहंकृतिविक्रियाणां |
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न जायते नो म्रियते न वर्धते |
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प्रकृतिविकृतिभिन्नः शुद्धबोधस्वभावः |
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नियमितमनसामुं त्वं स्वमात्मानमात्म |
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अत्रानात्मन्यहमिति मतिर्बन्ध एषोऽस्य पुंसः |
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अतस्मिंस्तद्बुद्धिः प्रभवति विमूढस्य तमसा |
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अखण्डनित्याद्वयबोधशक्त्या |
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तिरोभूते स्वात्मन्यमलतरतेजोवति पुमा |
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महामोहग्राहग्रसनगलितात्मावगमनो |
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भानुप्रभासंजनिताभ्रपङ्क्ति |
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कबलितदिननाथे दुर्दिने सान्द्रमेघै |
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एताभ्यामेव शक्तिभ्यां बन्धः पुंसः समागतः। |
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बीजं संसृतिभूमिजस्य तु तमो देहात्मधीरङ्कुरो |
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अज्ञानमूलोऽयमनात्मबन्धो |
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नास्त्रैर्न शस्त्रैरनिलेन वह्निना |
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श्रुतिप्रमाणैकमतेः स्वधर्म |
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कोशैरन्नमयाद्यैः पञ्चभिरात्मा न संवृतो भाति। |
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तच्छैवालापनये सम्यक्सलिलं प्रतीयते शुद्धम्। |
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पञ्चानामपि कोशानामपवादे विभात्ययं शुद्धः। |
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आत्मानात्मविवेकः कर्तव्यो बन्धमुक्तये विदुषा। |
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मुञ्जादिषीकामिव दृश्यवर्गा |
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देहोऽयमन्नभवनोऽन्नमयस्तु कोशो |
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पूर्वं जनेरपि मृतेरथ नायमस्ति |
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पाणिपादादिमान्देहो नात्मा व्यङ्गेऽपि जीवनात्। |
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देहतद्धर्मतत्कर्मतदवस्थादिसाक्षिणः। |
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शल्यराशिर्मांसलिप्तो मलपूर्णोऽतिकश्मलः। |
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त्वङ्मांसमेदोस्थिपुरीषराशा |
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देहोऽहमित्येव जडस्य बुद्धि |
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अत्रात्मबुद्धिं त्यज मूढबुद्धे |
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देहेन्द्रियादावसति भ्रमोदितां |
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छायाशरीरे प्रतिबिम्बगात्रे |
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देहात्मधीरेव नृणामसद्धियां |
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कर्मेन्द्रियैः पञ्चभिरञ्चितोऽयं |
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नैवात्मापि प्राणमयो वायुविकारो |
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ज्ञानेन्द्रियाणि च मनश्च मनोमयः स्या |
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प़ञ्चेन्द्रियैः पञ्चभिरेव होतृभिः |
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न ह्यस्त्यविद्या मनसोऽतिरिक्ता |
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स्वप्नेऽर्थशून्ये सृजति स्वशक्त्या |
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सुषुप्तिकाले मनसि प्रलीने |
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वायुनानीयते मेघः पुनस्तेनैव लीयते। |
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देहादिसर्वविषये परिकल्प्य रागं |
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तस्मान्मनः कारणमस्य जन्तो |
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विवेकवैराग्यगुणातिरेका |
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मनो नाम महाव्याघ्रो विषयारण्यभूमिषु। |
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मनः प्रसूते विषयानशेषा |
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असङ्गचिद्रूपममुं विमोह्य |
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अध्यासदोषात्पुरुषस्य संसृति |
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अतः प्राहुर्मनोऽविद्यां पण्डितास्तत्त्वदर्शिनः। |
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तन्मनःशोधनं कार्यं प्रयत्नेन मुमुक्षुणा। |
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मोक्षैकसक्त्या विषयेषु रागं |
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मनोमयो नापि भवेत्परात्मा |
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बुद्धिर्बुद्धीन्द्रियैः सार्धं सवृत्तिः कर्तृलक्षणः। |
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अनुव्रजच्चित्प्रतिबिम्बशक्ति |
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अनादिकालोऽयमहंस्वभावो |
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भुङ्क्ते विचित्रास्वपि योनिषु व्रज |
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देहादिनिष्ठाश्रमधर्मकर्म |
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योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृदि स्फुरत्स्वयंज्योतिः। |
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स्वयं परिच्छेदमुपेत्य बुद्धे |
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उपाधिसंबन्धवशात्परात्मा |
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शिष्य उवाच -- |
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अतोऽस्य जीवभावोऽपि नित्यो भवति संसृतिः। |
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श्रीगुरुरुवाच -- |
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भ्रान्तिं विना त्वसङ्गस्य निष्क्रियस्य निराकृतेः। |
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स्वस्य द्रष्टुर्निर्गुणस्याक्रियस्य |
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यावद्भ्रान्तिस्तावदेवास्य सत्ता |
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अनादित्वमविद्यायाः कार्यस्यापि तथेष्यते। |
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प्रबोधे स्वप्नवत्सर्वं सहमूलं विनश्यति। |
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अनादेरपि विध्वंसः प्रागभावस्य वीक्षितः। |
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जीवत्वं न ततोऽन्यत्तु स्वरूपेण विलक्षणम्। |
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विनिवृत्तिर्भवेत्तस्य सम्यग्ज्ञानेन नान्यथा। |
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तदात्मानात्मनोः सम्यग्विवेकेनैव सिध्यति। |
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जलं पङ्कवदस्पष्टं पङ्कापाये जलं स्फुटम्। |
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असन्निवृत्तौ तु सदात्मनः स्फुट |
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अतो नायं परात्मा स्याद्विज्ञानमयशब्दभाक्। |
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आनन्दप्रतिबिम्बचुम्बिततनुर्वृत्तिस्तमोजृम्भिता |
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आनन्दमयकोशस्य सुषुप्तौ स्फूर्तिरुत्कटा। |
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नैवायमानन्दमयः परात्मा |
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पञ्चानामपि कोशानां निषेधे युक्तितः कृते। |
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योऽयमात्मा स्वयंज्योतिः पञ्चकोशविलक्षणः। |
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शिष्य उवाच -- |
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श्रीगुरुरुवाच -- |
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सर्वे येनानुभूयन्ते यः स्वयं नानुभूयते। |
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तत्साक्षिकं भवेत्तत्तद्यद्यद्येनानुभूयते। |
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असौ स्वसाक्षिको भावो यतः स्वेनानुभूयते। |
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जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु स्फुटतरं योऽसौ समुज्जृम्भते |
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घटोदके बिम्बितमर्कबिम्ब |
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घटं जलं तद्गतमर्कबिम्बं |
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देहं धियं चित्प्रतिबिम्बमेतं |
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नित्यं विमुं सर्वगतं सुसूक्ष्म |
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विशोक आनन्दघनो विपश्चि |
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ब्रह्माभिन्नत्वविज्ञानं भवमोक्षस्य कारणम्। |
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ब्रह्मभूतस्तु संसृत्यै विद्वान्नावर्तते पुनः। |
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सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म विशुद्धं परं स्वतः सिद्धम्। |
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सदिदं परमाद्वैतं स्वस्मादन्यस्य वस्तुनोऽभावात्। |
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यदिदं सकलं विश्वं नानारूपं प्रतीतमज्ञानात्। |
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मृत्कार्यभूतोऽपि मृदो न भिन्नः |
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केनापि मृद्भिन्नतया स्वरूपं |
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सद्ब्रह्मकार्यं सकलं सदेव |
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ब्रह्मैवेदं विश्वमित्येव वाणी |
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सत्यं यदि स्याज्जगदेतदात्मनो |
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ईश्वरो वस्तुतत्त्वज्ञो न चाहं तेष्ववस्थितः। |
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यदि सत्यं भवेद्विश्वं सुषुप्तावपुलभ्यताम्। |
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अतः पृथङ्नास्ति जगत्परात्मनः |
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भ्रान्तस्य यद्यद्भ्रमतः प्रतीतं |
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अतः परं ब्रह्म सदद्वितीयं |
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निरस्तमायाकृतसर्वभेदं |
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ज्ञातृज्ञेयज्ञानशून्यमनन्तं निर्विकल्पकम्। |
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अहेयमनुपादेयं मनोवाचामगोचरम्। |
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तत्त्वंपदाभ्यामभिधीयमानयो |
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ऐक्यं तयोर्लक्षितयोर्न वाच्ययो |
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तयोर्विरोधोऽयमुपाधिकल्पितो |
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एतावुपाधी परजीवयोस्तयोः |
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अथात आदेश इति श्रुतिः स्वयं |
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नेदं नेदं कल्पितत्वान्न सत्यं |
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ततस्तु तौ लक्षणया सुलक्ष्यौ |
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स देवदत्तोऽयमितीह चैकता |
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संलक्ष्य चिन्मात्रतया सदात्मनो |
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अस्थूलमित्येतदसन्निरस्य |
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मृत्कार्यं सकलं घटादि सततं मृन्मात्रमेवाभित |
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निद्राकल्पितदेशकालविषयज्ञात्रादि सर्वं यथा |
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जातिनीतिकुलगोत्रदूरगं |
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यत्परं सकलवागगोचरं |
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षड्भिरूर्मिभिरयोगि योगिहृ |
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भ्रान्तिकल्पितजगत्कलाश्रयं |
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जन्मवृद्धिपरिणत्यपक्षय |
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अस्तभेदमनपास्तलक्षणं |
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एकमेव सदनेककारणं |
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निर्विकल्पकमनल्पमक्षरं |
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यद्विभाति सदनेकधा भ्रमा |
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यच्चकास्त्यनपरं परात्परं |
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उक्तमर्थमिममात्मनि स्वयं |
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स्वं बोधमात्रं परिशुद्धतत्त्वं |
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बुद्धौ गुहायां सदसद्विलक्षणं |
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ज्ञाते वस्तुन्यपि बलवती वासनानादिरेषा |
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अहं ममेति यो भावो देहाक्षादावनात्मनि। |
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ज्ञात्वा स्वं प्रत्यगात्मानं बुद्धितद्वृत्तिसाक्षिणम्। |
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लोकानुवर्तनं त्यक्त्वा त्यक्त्वा देहानुवर्तनम्। |
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लोकवासनया जन्तोः शास्त्रवासनयापि च। |
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संसारकारागृहमोक्षमिच्छो |
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जलादिसंपर्कवशात्प्रभूत |
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अन्तःश्रितानन्तदुरन्तवासना |
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अनात्मवासनाजालैस्तिरोभूतात्मवासना। |
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यथा यथा प्रत्यगवस्थितं मन |
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स्वात्मन्येव सदा स्थित्या मनो नश्यति योगिनः। |
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तमो द्वाभ्यां रजः सत्त्वात्सत्त्वं शुद्धेन नश्यति। |
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प्रारब्धं पुष्यति वपुरिति निश्चित्य निश्चलः। |
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नाहं जीवः परं ब्रह्मेत्यतद्व्यावृत्तिपूर्वकम्। |
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श्रुत्या युक्त्या स्वानुभूत्या ज्ञात्वा सार्वात्म्यमात्मनः। |
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अन्नदानविसर्गाभ्यामीषन्नास्ति क्रिया मुनेः। |
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तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थब्रह्मात्मैकत्वबोधतः। |
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अहंभावस्य देहेऽस्मिन्निःशेषविलयावधि। |
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प्रतीतिर्जीवजगतोः स्वप्नवद्भाति यावता। |
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निद्राया लोकवार्तायाः शब्दादेरपि विस्मृतेः। |
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मातापित्रोर्मलोद्भूतं मलमांसमयं वपुः। |
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घटाकाशं महाकाश इवात्मानं परात्मनि। |
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स्वप्रकाशमधिष्ठानं स्वयंभूय सदात्मना। |
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चिदात्मनि सदानन्दे देहारूढामहंधियम्। |
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यत्रैष जगदाभासो दर्पणान्तः पुरं यथा। |
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यत्सत्यभूतं निजरूपमाद्यं |
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सर्वात्मना दृश्यमिदं मृषैव |
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अहंपदार्थस्त्वहमादिसाक्षी |
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विकारिणां सर्वविकारवेत्ता |
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अतोऽभिमानं त्यज मांसपिण्डे |
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त्यजाभिमानं कुलगोत्रनाम |
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सन्त्यन्ये प्रतिबन्धाः पुंसः संसारहेतवो दृष्टाः। |
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यावत्स्यात्स्वस्य संबन्धोऽहंकारेण दुरात्मना। |
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अहंकारग्रहान्मुक्तः स्वरूपमुपपद्यते। |
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यो वा पुरैषोऽहमिति प्रतीतो |
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ब्रह्मानन्दनिधिर्महाबलवताहंकारघोराहिना |
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यावद्वा यत्किंचिद्विषदोषस्फूर्तिरस्ति चेद्देहे। |
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अहमोऽत्यन्तनिवृत्त्या तत्कृतनानाविकल्पसंहृत्या। |
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अहंकर्तर्यस्मिन्नहमिति मतिं मुञ्च सहसा |
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सदैकरूपस्य चिदात्मनो विभो |
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तस्मादहंकारमिमं स्वशत्रुं |
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ततोऽहमादेर्विनिवर्त्य वृत्तिं |
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समूलकृत्तोऽपि महानहं पन |
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निगृह्य शत्रोरहमोऽवकाशः |
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देहात्मना संस्थित एव कामी |
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कार्यप्रवर्धनाद्बीजप्रवृद्धिः परिदृश्यते। |
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वासनावृद्धितः कार्यं कार्यवृद्ध्या च वासना। |
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संसारबन्धविच्छित्त्यै तद्द्वयं प्रदहेद्यतिः। |
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ताभ्यां प्रवर्धमाना सा सूते संसृतिमात्मनः। |
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सर्वत्र सर्वतः सर्वं ब्रह्ममात्रावलोकनम्। |
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क्रियानाशे भवेच्चिन्तानाशोऽस्माद्वासनाक्षयः। |
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सद्वासनास्फूर्तिविजृम्भणे सति |
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तमस्तमःकार्यमनर्थजालं |
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दृश्यं प्रतीतं प्रविलापयन्स्वयं |
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प्रमादो ब्रह्मनिष्ठायां न कर्तव्यः कदाचन। |
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न प्रमादादनर्थोऽन्यो ज्ञानिनः स्वस्वरूपतः। |
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विषयाभिमुखं दृष्ट्वा विद्वांसमपि विस्मृतिः। |
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यथा प्रकृष्टं शैवालं क्षणमात्रं न तिष्ठति। |
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लक्ष्यच्युतं चेद्यदि चित्तमीष |
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विषयेष्वाविशच्चेतः संकल्पयति तद्गुणान्। |
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ततः स्वरूपविभ्रंशो विभ्रष्टस्तु पतत्यधः। |
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अतः प्रमादान्न परोऽस्ति मृत्यु |
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जीवतो यस्य कैवल्यं विदेहे च स केवलः। |
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यदा कदा वापि विपश्चिदेष |
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श्रुतिस्मृतिन्यायशतैर्निषिद्धे |
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सत्याभिसंधानरतो विमुक्तो |
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यतिरसदनुसंधिं बन्धहेतुं विहाय |
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बाह्यानुसंधिः परिवर्धयेत्फलं |
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बाह्ये निरुद्धे मनसः प्रसन्नता |
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कः पण्डितः सन्सदसद्विवेकी |
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देहादिसंसक्तिमतो न मुक्ति |
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अन्तर्बहिः स्वं स्थिरजङ्गमेषु |
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सर्वात्मना बन्धविमुक्तिहेतुः |
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दृश्यस्याग्रहणं कथं नु घटते देहात्मना तिष्ठतो |
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सार्वात्म्यसिद्धये भिक्षोः कृतश्रवणकर्मणः। |
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आरूढशक्तेरहमो विनाशः |
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अहंबुद्ध्यैव मोहिन्या योजयित्वावृतेर्बलात्। |
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विक्षेपशक्तिविजयो विषमो विधातुं |
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सम्यग्विवेकः स्फुटबोधजन्यो |
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परावरैकत्वविवेकवह्नि |
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आवरणस्य निवृत्तिर्भवति च सम्यक्पदार्थदर्शनतः। |
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एतत्ित्रतयं दृष्टं सम्यग्रज्जुस्वरूपविज्ञानात्। |
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अयोऽग्नियोगादिव सत्समन्वया |
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ततो विकाराः प्रकृतेरहंमुखा |
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नित्याद्वयाखण्डचिदेकरूपो |
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इत्थं विपश्चित्सदसद्विभज्य |
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अज्ञानहृदयग्रन्थेर्निःशेषविलयस्तदा। |
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त्वमहमिदमितीयं कल्पना बुद्धिदोषा |
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शान्तो दान्तः परमुपरतः क्षान्तियुक्तः समाधिं |
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समाहिता ये प्रविलाप्य बाह्यं |
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उपाधिभेदात्स्वयमेव भिद्यते |
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सति सक्तो नरो याति सद्भावं ह्येकनिष्ठया। |
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क्रियान्तरासक्तिमपास्य कीटको |
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अतीव सूक्ष्मं परमात्मतत्त्वं |
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यथा सुवर्णं पुटपाकशोधितं |
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निरन्तराभ्यासवशात्तदित्थं |
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समाधिनानेन समस्तवासना |
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श्रुतेः शतगुणं विद्यान्मननं मननादपि। |
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निर्विकल्पकसमाधिना स्फुटं |
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अतः समाधत्स्व यतेन्द्रियः सदा |
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योगस्य प्रथमं द्वारं वाङ्निरोधोऽपरिग्रहः। |
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एकान्तस्थितिरिन्द्रियोपरमणे हेतुर्दमश्चेतसः |
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वाचं नियच्छात्मनि तं नियच्छ |
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देहप्राणेन्द्रियमनोबुद्ध्यादिभिरुपाधिभिः। |
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तन्निवृत्त्या मुनेः सम्यक्सर्वोपरमणं सुखम्। |
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अन्तस्त्यागो बहिस्त्यागो विरक्तस्यैव युज्यते। |
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बहिस्तु विषयैः सङ्गस्तथान्तरहमादिभिः। |
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वैराग्यबोधौ पुरुषस्य पक्षिव |
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अत्यन्तवैराग्यवतः समाधिः |
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वैराग्यान्न परं सुखस्य जनकं पश्यामि वश्यात्मन |
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आशां छिन्धि विषोपमेषु विषयेष्वेषैव मृत्योः सृति |
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लक्ष्ये ब्रह्मणि मानसं दृढतरं संस्थाप्य बाह्येन्द्रियं |
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अनात्मचिन्तनं त्यक्त्वा कश्मलं दुःखकारणम्। |
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एष स्वयंज्योतिरशेषसाक्षी |
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एतमच्छिन्नया वृत्त्या प्रत्ययान्तरशून्यया। |
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अत्रात्मत्वं दृढीकुर्वन्नहमादिषु संत्यजन्। |
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विशुद्धमन्तःकरणं स्वरूपे |
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देहेन्द्रियप्राणमनोहमादिभिः |
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घटकलशकुसूलसूचिमुख्यै |
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ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्ता मृषामात्रा उपाधयः। |
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यत्र भ्रान्त्या कल्पितं यद्विवेके |
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स्वयं ब्रह्मा स्वयं विष्णुः स्वयमिन्द्रः स्वयं शिवः। |
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अन्तः स्वयं चापि बहिः स्वयं च |
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तरङ्गफेनभ्रमवुद्बुदादि सर्वं स्वरूपेण जलं यथा तथा। |
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सदेवेदं सर्वं जगदवगतं वाङ्मनसयोः |
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क्रियासमभिहारेण यत्र नान्यदिति श्रुतिः। |
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आकाशवन्निर्मलनिर्विकल्प |
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वक्तव्यं किमु विद्यतेऽत्र बहुधा ब्रह्मैव जीवः स्वयं |
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जहि मलमयकोशेऽहंधियोत्थापिताशां |
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शवाकारं यावद्भजति मनुजस्तावदशुचिः |
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स्वात्मन्यारोपिताशेषाभासवस्तुनिरासतः। |
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समाहितायां सति चित्तवृत्तौ |
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असत्कल्पो विकल्पोऽयं विश्वमित्येकवस्तुनि। |
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द्रष्टृदर्शनदृश्यादिभावशून्यैकवस्तुनि। |
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कल्पार्णव इवात्यन्तपरिपूर्णैकवस्तुनि। |
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तेजसीव तमो यत्र विलीनं भ्रान्तिकारणम्। |
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एकात्मके परे तत्त्वे भेदवार्ता कथं भवेत् |
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न ह्यस्ति विश्वं परतत्त्वबोधा |
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मायामात्रमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः। |
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अनन्यत्वमधिष्ठानादारोप्यस्य निरीक्षितम्। |
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चित्तमूलो विकल्पोऽयं चित्ताभावे न कश्चन। |
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किमपि सततबोधं केवलानन्दरूपं |
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प्रकृतिविकृतिशून्यं भावनातीतभावं |
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अजरममरमस्ताभासवस्तुस्वरूपं |
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समाहितान्तःकरणः स्वरूपे |
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सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं सच्चिदानन्दमद्वयम्। |
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छायेव पुंसः परिदृश्यमान |
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सततविमलबोधानन्दरूपं समेत्य |
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समूलमेतत्परिदह्य वह्नौ |
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प्रारब्धसूत्रग्रथितं शरीरं |
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अखण्डानन्दमात्मानं विज्ञाय स्वस्वरूपतः। |
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संसिद्धस्य फलं त्वेतज्जीवन्मुक्तस्य योगिनः। |
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वैराग्यस्य फलं बोधो बोधस्योपरतिः फलम्। |
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यद्युत्तरोत्तराभावः पूर्वपूर्वं तु निष्फलम्। |
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दृष्टदुःखेष्वनुद्वेगो विद्यायाः प्रस्तुतं फलम्। |
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विद्याफलं स्यादसतो निवृत्तिः |
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अज्ञानहृदयग्रन्थेर्विनाशो यद्यशेषतः। |
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वासनानुदयो भोग्ये वैराग्यस्य तदावधिः। |
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ब्रह्माकारतया सदा स्थिततया निर्मुक्तबाह्यार्थधी |
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स्थितप्रज्ञो यतिरयं यः सदानन्दमश्नुते। |
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ब्रह्मात्मनोः शोधितयोरेकभावावगाहिनी। |
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यस्य स्थिता भवेत्प्रज्ञा यस्यानन्दो निरन्तरः। |
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लीनधीरपि जागर्ति यो जाग्रद्धर्मवर्जितः। |
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शान्तसंसारकलनः कलावानपि निष्कलः। |
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वर्तमानेऽपि देहेऽस्मिंश्छायावदनुवर्तिनि। |
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अतीताननुसंधानं भविष्यदविचारणम्। |
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गुणदोषविशिष्टेऽस्मिन्स्वभावेन विलक्षणे। |
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इष्टानिष्टार्थसंप्राप्तौ समदर्शितयात्मनि। |
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ब्रह्मानन्दरसास्वादासक्तचित्ततया यतेः। |
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देहेन्द्रियादौ कर्तव्ये ममाहंभाववर्जितः। |
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विज्ञात आत्मनो यस्य ब्रह्मभावः श्रुतेर्बलात्। |
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देहेन्द्रियेष्वहंभाव इदंभावस्तदन्यके। |
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न प्रत्यग्ब्रह्मणोर्भेदं कदापि ब्रह्मसर्गयोः। |
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साधुभिः पूज्यमानेऽस्मिन्पीड्यमानेऽपि दुर्जनैः। |
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यत्र प्रविष्टा विषयाः परेरिता |
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विज्ञातब्रह्मतत्त्वस्य यथापूर्वं न संसृतिः। |
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प्राचीनवासनावेगादसौ संसरतीति चेत्। |
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अत्यन्तकामुकस्यापि वृत्तिः कुण्ठति मातरि। |
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निदिध्यासनशीलस्य बाह्यप्रत्यय ईक्ष्यते। |
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सुखाद्यनुभवो यावत्तावत्प्रारब्धमिष्यते। |
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अहं ब्रह्मेति विज्ञानात्कल्पकोटिशतार्जितम्। |
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यत्कृतं स्वप्नवेलायां पुण्यं वा पापमुल्बणम्। |
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स्वमसङ्गमुदासीनं परिज्ञाय नभो यथा। |
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न नभो घटयोगेन सुरागन्धेन लिप्यते। |
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ज्ञानोदयात्पुरारब्धं कर्म ज्ञानान्न नश्यति। |
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व्याघ्रबुद्ध्या विनिर्मुक्तो बाणः पश्चात्तु गोमतौ। |
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प्रारब्धं बलवत्तरं खलु विदां भोगेन तस्य क्षयः |
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उपाधितादात्म्यविहीनकेवल |
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न हि प्रबुद्धः प्रतिभासदेहे |
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न तस्य मिथ्यार्थसमर्थनेच्छा |
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तद्वत्परे ब्रह्मणि वर्तमानः |
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कर्मणा निर्मितो देहः प्रारब्धं तस्य कल्प्यताम्। |
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अजो नित्य इति ब्रूते श्रुतिरेषा त्वमोघवाक्। |
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प्रारब्धं सिध्यति तदा यदा देहात्मना स्थितिः। |
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अध्यस्तस्य कुतः सत्त्वमसत्त्वस्य कुतो जनिः। |
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ज्ञानेनाज्ञानकार्यस्य समूलस्य लयो यदि। |
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न तु देहादिसत्यत्वबोधनाय विपश्चिताम्। |
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परिपूर्णमनाद्यन्तमप्रमेयमविक्रियम्। |
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सद्धनं चिद्धनं नित्यमानन्दघनमक्रियम्। |
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प्रत्यगेकरसं पूर्णमनन्तं सर्वतोमुखम्। |
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अहेयमनुपादेयमनाधेयमनाश्रयम्। |
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निर्गुणं निष्कलं सूक्ष्मं निर्विकल्पं निरञ्जनम्। |
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अनिरूप्यस्वरूपं यन्मनोवाचामगोचरम्। |
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सत्समृद्धं स्वतःसिद्धं शुद्धं बुद्धमनीदृशम्। |
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निरस्तरागा निरपास्तभोगाः |
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भवानपीदं परतत्त्वमात्मनः |
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समाधिना साधु विनिश्चलात्मना |
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स्वस्याविद्याबन्धसंबन्धमोक्षा |
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बन्धो मोक्षश्च तृप्तिश्च चिन्तारोग्यक्षुधादयः। |
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तटस्थिता बोधयन्ति गुरवः श्रुतयो यथा। |
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स्वानुभूत्या स्वयं ज्ञात्वा स्वमात्मानमखण्डितम्। |
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वेदान्तसिद्धान्तनिरुक्तिरेषा |
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इति गुरुवचनाच्छ्रुतिप्रमाणा |
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कंचित्कालं समाधाय परे ब्रह्मणि मानसम्। |
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बुद्धिर्विनष्टा गलिता प्रवृत्ति |
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वाचा वक्तुमशक्यमेव मनसा मन्तुं न वास्वाद्यते |
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क्व गतं केन वानीतं कुत्र लीनमिदं जगत्। |
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किं हेयं किमुपादेयं किमन्यत्किं विलक्षणम्। |
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न किंचिदत्र पश्यामि न श्रृणोमि न वेद्म्यहम्। |
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नमो नमस्ते गुरवे महात्मने |
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यत्कटाक्षशशिसान्द्रचन्द्रिका |
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धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं विमुक्तोऽहं भवग्रहात्। |
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असङ्गोऽहमनङ्गोऽहमलिङ्गोऽहमभङ्गुरः। |
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अकर्ताहमभोक्ताहमविकारोऽहमक्रियः। |
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द्रष्टुः श्रोतुर्वक्तुः कर्तुर्भोक्तुर्विभिन्न एवाहम्। |
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नाहमिदं नाहमदोऽप्युभयोरवभासकं परं शुद्धम्। |
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निरुपममनादितत्त्वं त्वमहमिदमद इति कल्पनादूरम्। |
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नारायणोऽहं नरकान्तकोऽहं |
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सर्वेषु भूतेष्वहमेव संस्थितो |
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मय्यखण्डसुखाम्भोधौ बहुधा विश्ववीचयः। |
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स्थूलादिभावा मयि कल्पिता भ्रमा |
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आरोपितं नाश्रयदूषकं भवे |
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आकाशवत्कल्पविदूरगोऽह |
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न मे देहेन संबन्धो मेघेनेव विहायसः। |
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उपाधिरायाति स एव गच्छति |
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न मे प्रवृत्तिर्न च मे निवृत्तिः |
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पुण्यानि पापानि निरिन्द्रियस्य |
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छायया स्पृष्टमुष्णं वा शीतं वा सुष्ठु दुष्ठु वा। |
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न साक्षिणं साक्ष्यधर्माः संस्पृशन्ति विलक्षणम्। |
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रवेर्यथा कर्मणि साक्षिभावो |
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कर्तापि वा कारयितापि नाहं |
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चलत्युपाधौ प्रतिबिम्बलौल्य |
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जले वापि स्थले वापि लुठत्वेष जडात्मकः। |
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कर्तृत्वभोक्तृत्वखलत्वमत्तता |
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सन्तु विकाराः प्रकृतेर्दशधा शतधा सहस्रधा वापि। |
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अव्यक्तादि स्थूलपर्यन्तमेत |
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सर्वाधारं सर्ववस्तुप्रकाशं |
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यस्मिन्नस्ताशेषमायाविशेषं |
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निष्क्रियोऽस्म्यविकारोऽस्मि |
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सर्वात्मकोऽहं सर्वोऽहं सर्वातीतोऽहमद्वयः। |
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स्वाराज्यसाम्राज्यविभूतिरेषा |
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महास्वप्ने मायाकृतजनिजरामृत्युगहने |
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नमस्तस्मै सदेकस्मै नमश्चिन्महसे मुहुः। |
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इति नतमवलोक्य शिष्यवर्यं |
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ब्रह्मप्रत्ययसंततिर्जगदतो ब्रह्मैव सत्सर्वतः |
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कस्तां परानन्दरसानुभूति |
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असत्पदार्थानुभवे न किंचि |
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स्वमेव सर्वतः पश्यन्मन्यमानः स्वमद्वयम्। |
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अखण्डबोधात्मनि निर्विकल्पे |
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तूष्णीमवस्था परमोपशान्ति |
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नास्ति निर्वासनान्मौनात्परं सुखकृदुत्तमम्। |
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गच्छंस्तिष्ठन्नुपविशञ्शयानो वान्यथापि वा। |
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न देशकालासनदिग्यमादि |
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घटोऽयमिति विज्ञातुं नियमः कोऽन्वपेक्ष्यते। |
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अयमात्मा नित्यसिद्धः प्रमाणे सति भासते। |
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देवदत्तोऽहमित्येतद्विज्ञानं निरपेक्षकम्। |
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भानुनेव जगत्सर्वं भासते यस्य तेजसा। |
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वेदशास्त्रपुराणानि भूतानि सकलान्यपि। |
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एष स्वयंज्योतिरनन्तशक्ति |
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न खिद्यते नो विषयैः प्रमोदते |
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क्षुधां देहव्यथां त्यक्त्वा बालः क्रीडति वस्तुनि। |
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चिन्ताशून्यमदैन्यभैक्षमशनं पानं सरिद्वारिषु |
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विमानमालम्ब्य शरीरमेतत् |
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दिगम्बरो वापि च साम्बरो वा |
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कामान्नी कामरूपी संश्चरत्येकचरो मुनिः। |
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क्वचिन्मूढो विद्वान्क्वचिदपि महाराजविभवः |
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निर्धनोऽपि सदा तुष्टोऽप्यसहायो महाबलः। |
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अपि कुर्वन्नकुर्वाणश्चाभोक्ता फलभोग्यपि। |
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अशरीरं सदा सन्तमिमं ब्रह्मविदं क्वचित्। |
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स्थूलादिसंबन्धवतोऽभिमानिनः |
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तमसा ग्रस्तवद्भानादग्रस्तोऽपि रविर्जनैः। |
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तद्वद्देहादिबन्धेभ्यो विमुक्तं ब्रह्मवित्तमम्। |
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अहिनिर्ल्वयनीवायं मुक्तदेहस्तु तिष्ठति। |
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स्रोतसा नीयते दारु यथा निम्नोन्नतस्थलम्। |
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प्रारब्धकर्मपरिकल्पितवासनाभिः |
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नैवेन्द्रियाणि विषयेषु नियुङ्क्त एष |
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लक्ष्यालक्ष्यगतिं त्यक्त्वा यस्तिष्ठेत्केवलात्मना। |
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जीवन्नेव सदा मुक्तः कृतार्थो ब्रह्मवित्तमः। |
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शैलूषो वेषसद्भावाभावयोश्च यथा पुमान्। |
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यत्र क्वापि विशीर्णं पर्णमिव तरोर्वपुः पतनात्। |
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सदात्मनि ब्रह्मणि तिष्ठतो मुनेः |
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देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलोः |
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कुल्यायामथ नद्यां वा शिवक्षेत्रेऽपि चत्वरे। |
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पत्रस्य पुष्पस्य फलस्य नाशव |
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प्रज्ञानघन इत्यात्मलक्षणं सत्यसूचकम्। |
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अविनाशी वा अरेयमात्मेति श्रुतिरात्मनः। |
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पाषाणवृक्षतृणधान्यकटाम्बराद्या |
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विलक्षणं यथा ध्वान्तं लीयते भानुतेजसि। |
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घटे नष्टे यथा व्योम व्योमैव भवति स्फुटम्। |
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क्षीरं क्षीरे यथा क्षिप्तं तैलं तैले जलं जले। |
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एवं विदेहकैवल्यं सन्मात्रत्वमखण्डितम्। |
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सदात्मैकत्वविज्ञानदग्धाविद्यादिवर्ष्मणः। |
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मायाक्लृप्तौ बन्धमोक्षौ न स्तः स्वात्मनि वस्तुतः। |
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आवृतेः सदसत्त्वाभ्यां वक्तव्ये बन्धमोक्षणे। |
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बन्धश्च मोक्षश्च मृषैव मूढा |
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अस्तीति प्रत्ययो यश्च |
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अतस्तौ मायया क्लृप्तौ बन्धमोक्षौ न चात्मनि |
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न निरोधो न चोत्पत्ति |
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सकलनिगमचूडास्वान्तसिद्धान्तगुह्यं |
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इति श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं |
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गुरुरेष सदानन्द |
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इत्याचार्यस्य शिष्यस्य |
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हितमिदमुपदेशमाद्रियन्तां |
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संसाराध्वनि तापभानुकिरणप्रोद्भूतदाहव्यथा |