Comprehensive Texts
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अथ पुनराचम्य गुरुः |
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ऋषिर्गुरुत्वाच्छिरसैव धार्य |
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ऋषिवर्णादिकौ धातू स्तो गत्या प्रापणेन च। |
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इच्छादानार्थकौ धातू स्तश्छदाद्यश्च दादिकः। |
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आत्मनो देवताभावप्रधानाद्देवतेति च। |
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हृदयशिरसोः शिखायां कवचाक्ष्यस्त्रेषु सह चतुर्थीषु। |
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हृदयं बुद्धिगम्यत्वात्प्रणामः स्यान्नमः पदम्। |
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तुङ्गार्थत्वाच्छिरः स्वे स्वे विषयाहरणे द्विठः। |
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शिखादेशसमुद्दिष्टा वषडित्यङ्गमुच्यते। |
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कचग्रहण इत्यस्माद्धातोः कवचसंभवः। |
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नेत्रदृष्टिः समुद्दिष्टा वौषड् दर्शनमुच्यते। |
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असुत्रसादिकौ धातू स्तः क्षेपचलनार्थकौ। |
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प्रोक्तानीत्यङ्गमन्त्राणि सर्वमन्त्रेषु सूरिभिः। |
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सर्वेष्वपि च मन्त्रेषु नेत्रलोपो विधीयते। |
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कनिष्ठान्तासु तद्बाह्यतलयोः करयोः सुधीः। |
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दिशो दश क्रमादङ्गषट्कं वा पञ्चकं न्यसेत्। |
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शङ्ख सगन्धपुष्पाक्षततोयं वामतः प्रविन्यस्य। |
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न्यस्येच्च दक्षभागे सुमनःपात्रं तथाभितो दीपान्। |
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प्रथमं निजसव्यतो यथाव |
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रक्तं धर्मं वृषतनुमथाग्नौ हरिं श्यामवर्णं |
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मध्येऽनन्तं पद्ममस्मिंश्च सूर्यं |
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श्वेता कृष्णा रक्ता |
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विन्यस्य कर्णिकोपरि शाली |
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त्रिगुणेन च तन्तुरूपभाजा |
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न्यस्य दर्भमयं कूर्चमक्षता |
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अथवा दशमूलपुष्पदुग्धा |
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शङ्खे कषायोदकपूरिते च |
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त्रिविधं गन्धाष्टकमपि |
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चन्दनकर्पूरागरु |
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चन्दनह्रीबेरागरु |
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अष्टत्रिंशत्प्रभेदेन याः कलाः प्रागुदीरिताः। |
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याः पञ्चाशत्कलास्तारपञ्चभेदसमुत्थिताः। |
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सप्तात्मकस्य तारस्य परौ द्वौ तु वरौ यतः। |
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प्रथमप्रकृतेर्हंसः प्रतद्विष्णुरनन्तरः। |
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विष्णुर्योनिमथेत्यादिः पञ्चमः कल्प्यतां मनुः। |
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अत्र याः पञ्च संप्रोक्ता ऋचस्तारस्य पञ्चभिः। |
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कुर्यात्प्राणप्रतिष्ठां च तत्र तत्र समाहितः। |
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अश्वत्थचूतपनस |
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पुनस्तोयगतं देव साध्यमन्त्रानुरूपतः। |
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आसनस्वागते सार्घ्यपाद्ये साचमनीयके। |
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सुगन्धसुमनोधूपदीपनैवेद्यवन्दनान्। |
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अर्घ्यपाद्याचमनकमधुपर्काचमान्यपि। |
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गन्धादयो निवेद्यान्ता पूजा पञ्चोपचारिकी। |
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गन्धपुष्पाक्षतयवकुशाग्रतिलसर्षपाः। |
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पाद्यं श्यामाकदूर्वाब्जविष्णुक्रान्ताभिरुच्यते। |
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मधुपर्कं च सक्षौद्रं दधि प्रोक्तं मनीषिभिः। |
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चन्दनागरुकर्पूरपङ्कं गन्धमिहोच्यते। |
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तुलस्यौ पङ्कजे जात्यौ केतक्यौ करवीरकौ। |
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उत्पलानि च नीलानि कुमुदानि च मालती। |
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पलाशपाटलीपार्थपारन्त्यावर्तकानि च। |
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अशोकोद्भवबिल्वाब्जकर्णिकारोद्भवानि च। |
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मुकुलैः पतितैर्म्लानैर्जीर्णैर्वा जन्तुदूषितैः। |
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सगुग्गुल्वगरूशीरसिताज्यमधुचन्दनैः। |
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गोसर्पिषा वा तैलेन वर्त्या च लघुगर्भया। |
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सुसितेन सुशुद्धेन पायसेन सुसर्पिषा। |
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वर्णैर्मनुप्रपुटितैः क्रमशः शतार्धै |
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हृदयं सशिरस्तथा शिखाथो |
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हारस्फटिककलाया |
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आदावङ्गावरणं |
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इन्द्राग्नियमनिशाचर |
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पीतः पिङ्गः कृष्णो |
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वज्रः सशक्तिदण्डः |
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पीतहिमजलदगगना |
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कृते निवेद्ये च ततो मण्डलं परितः क्रमात्। |
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उपलिप्य कुण्डमत्र |
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अथवा षट्कोणावृत |
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तत्राथो सदृतुमतीमथेन्द्रियाभां |
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चित्पिङ्गलपदमुक्त्वा |
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अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम्। |
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अनेन ज्वलितं मन्त्रेणोपतिष्ठेद्धुताशनम्। |
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सलिङ्गगुदमूर्धास्यनासानेत्रेषु च क्रमात्। |
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हिरण्या गगना रक्ता कृष्णा चैव तु सुप्रभा। |
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पद्मरागा सुवर्णा च तृतीया भद्रलोहिता। |
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राजस्यः कथिता ह्येताः क्रमात्कल्याणरेतसः। |
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लोहिता च करालाख्या काली तामसजिह्विका। |
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सात्त्विक्यो दिव्यपूजासु राजस्यः काम्यकर्मसु। |
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सुराः सपितृगन्धर्वयक्षनागपिशाचिकाः। |
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जिह्वासु त्रिदशादीनां तत्तत्कार्यसमाप्तये। |
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स्वनामसदृशाकाराः प्रायो जिह्वा हविर्भुजः। |
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सहस्रार्चिः स्वस्तिपूर्ण उत्तिष्ठपुरुषस्तथा। |
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अङ्गमन्त्राः क्रमादष्टमूर्तिश्चाथ प्रविन्यसेत्। |
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प्रादक्षिण्येन विन्यस्येद्यथावद्देशिकोत्तमः। |
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अश्वोदरजसज्ञश्च स वैश्वानर एव च। |
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स्युरष्टमूर्तयो वह्नेरग्नये पदपूर्विकाः। |
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दिक्क्रमात्संपरिस्तीर्य सम्यग्गन्धादिभिर्यजेत्। |
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अङ्गमन्त्रैस्ततो बाह्ये अष्टाभिर्मूर्तिभिः क्रमात्। |
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वैश्वानरं जातवेदमुक्त्वा चेहावहेति च। |
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त्रिणयनमरुणप्ताबद्धमौलिं सुशुक्लां |
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जिह्वा ज्वालारुचः प्रोक्ता वराभययुतानि च। |
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संस्कृतेन घृतेनाभिद्योतनोद्योतितेन च। |
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गर्भाधानादिका वह्नेः समुद्वाहावसानिकाः। |
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जिह्वाङ्गमूर्तिमनुभिरेकावृत्या हुनेत्तथा। |
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ताराद्यैर्दशभिर्भेदैः पूर्वैः पूर्वैः समन्वितः। |
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जुहुयाच्च चतुर्वारं समस्तेनैव तेन तु। |
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जुहुयात्सर्वहोमेषु सुधीरनलतृप्तये। |
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पुनः साध्येन मनुना हुनेदष्टसहस्रकम्। |
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द्रव्यैर्विधानप्रोक्तैर्वा महाव्याहृतिपश्चिमम्। |
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भूर्भुवःस्वर्भूर्भुवस्वःपूर्वं स्वाहान्तमेव च। |
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वायवे चान्तरिक्षाय महते च समन्वितम्। |
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चन्द्रमसे च दिग्भ्यश्च महते च समन्वितम्। |
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ब्रह्मार्पणाख्यमनुना पुनरष्टावथाहुतीः। |
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इतः पूर्वं प्राणबुद्धिदेहधर्मादिकारतः। |
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ततश्च मनसा वाचा कर्मणेति प्रभाषयेत्। |
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शिश्ना च यत्कृतं प्रोक्त्वा यदुक्तं यत्स्मृतं तथा। |
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भवत्वन्ते द्विठश्चायं ब्रह्मार्पणमनुर्मतः। |
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नक्षत्राणां सराशीनां सवाराणां यथाक्रमम्। |
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ताराणामश्िवनादीनां राशीः पादाधिकद्वयम्। |
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देवताभ्यः पदं प्रोक्त्वा दिवानक्तपदं तथा। |
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एवं राशो तु संपूर्णे तस्मिंस्तद्वत्प्रयोजयेत्। |
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सप्तानां करणानां च दद्यान्मीनाह्वमेषयोः। |
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पुनर्निवेद्यमुद्धृत्य पुरोवत्परिपूज्य च। |
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दोर्भ्यां पदाभ्यां जानुभ्यामुरसा शिरसा दृशा। |
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बाहुभ्यां च सजानुभ्यां शिरसा वचसा धिया। |
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गुर्वाद्यास्तारादिका यागमन्त्रा |
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वाससी च पुनरङ्गुलिभूषां |
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नत्त्वा ततस्तनुभृते परमात्मने स्वं |
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अथ पटुरवमुख्यवाद्यघोषै |
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यथा पुरा पूरितमक्षरैर्घटैः |
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विमले परिधाय वाससी |
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गुरुणा समनुगृहीतं |
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मन्त्रे मन्त्रगुरावपि |
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संक्षेपादिति गदिता हिताय दीक्षा |
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प्रोक्तेनैवं कलशविधिनैकेन वानेककुम्भै |