Comprehensive Texts
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अथ व्यवस्थिते त्वेवं मासात्पक्षाद्दिनादपि। |
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जन्तुः षडङ्गी पूर्वं स्याच्छिरः पादौ करावपि। |
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अक्षिनासास्यकर्णभ्रूकपोलचिबुकादिकम्। |
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उरः कुक्षिस्तनाद्यं च ततः सर्वाङ्गवान्विभुः। |
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प्रसूतिसमये सोऽथ जनित्रीं क्लेशयन्मुहुः। |
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तस्यां ग्रहिण्यां शकृतिमग्नवक्त्राक्षिनासिकः। |
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तस्याः कायाग्निना दग्धः क्लेदैः क्लिन्नाङ्गबन्धनः। |
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तदा प्रक्षुभितैः स्वीयवायुभिर्दशतां गतैः। |
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प्राणाद्या वायवस्तत्र पूर्वमेव कृतास्पदाः। |
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प्रयात्यूर्ध्वं यदा प्राणस्तदापानोऽप्यधस्तथा। |
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तदा तत्पाकमुक्तं तु रसमादाय धावति। |
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उदानः प्राणसहितो निमेषोन्मेषकारकः। |
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क्षुतकृत्कृकलो देवदत्तो जृम्भणकर्मकृत्। |
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स तु लौकिकवायुत्वान्मृतं च न विमुञ्चति। |
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वह्नयश्च दशान्ये स्युस्तेषां सप्त तु धातुगाः। |
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त्वगसृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्लानि धातवः। |
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समवायी स विश्वात्मा विश्वगो विश्वकर्मकृत्। |
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बुभुक्षा च पिपासा च शोकमोहौ जरामृती। |
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मज्जास्थिस्नायवः शुक्लाद्रक्तात्त्वङ्मांसशोणिताः। |
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रसादितः क्रमात्पाकः शुक्लान्तेषु तु धातुषु। |
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क्षेत्रज्ञस्य तदोजस्तु केवलाश्रयमिष्यते। |
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बहुद्वारेण कुम्भेन संवृतस्य हविर्भुजः। |
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तथा देहावृतस्यापि क्षेत्रज्ञस्य महात्विपः। |
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नभः श्रोत्रेऽनिलश्चर्मण्यग्निश्चक्षुष्यथो रसः। |
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यदा पित्तं मरुन्नुन्नं विलीनं प्रविलापयेत्। |
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द्रुता सा तु लसीकाह्वा रोमकूपैः प्रवर्तते। |
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यदा कफो मरुत्पित्तं नुन्नोमीन(?) प्रवर्तते। |
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कफात्मिकास्तु विकृतीः कर्मशष्कुलिपूर्विकाः। |
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ग्रहणी नाम सा पात्री प्रसृताञ्जलिसंनिभा। |
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तस्याधस्तात्ित्रकोणाभं ज्योतिराधारमुत्तमम्। |
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अथाहृतं षड्रसं वाप्याहारं कण्ठमार्गगम्। |
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तत्र स्वाद्वम्ललवणतिक्तोषणकषायकाः। |
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तथैवामाशयगतं पश्चात्पित्ताशयं व्रजेत्। |
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तत्रान्त्रान्तरसंश्लिष्टं पच्यते पित्तवारिणा। |
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तत्र किट्टं पृथग्भिन्नं ग्रहण्यां चिनुतेऽनिलः। |
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सा तेन शकृता पूर्णा वलिता प्रतिमुञ्चति। |
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अङ्गं स्वेदवदभ्यन्तर्व्याप्तैः सूक्ष्मैः सिरामुखैः। |
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मूत्राशयो धनुर्वक्रो वस्तिरित्यभिधीयते। |
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अपथ्यभाजामनयोर्मार्गयोर्दोषदुष्टयोः। |
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इत्थंभूतः स जन्तुस्तु जरायुच्छन्नगात्रवान्। |
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जायतेऽधिकसंविग्नो जृम्भतेऽङ्गैः प्रकम्पितैः। |
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अथ पापकृतां शरीरभाजा |
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जायते पुनरसौ निजाङ्गकै |
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मूलाधारात्प्रथममुदितो यस्तु भावः पराख्यः |
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स्रोतोमार्गस्याविभक्तत्वहेतो |
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ज्ञातास्मीति यदा भावो मनोऽहंकारबुद्धिमान्। |
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बध्नाति मातापित्रोस्तु पूर्वं बन्धुषु च क्रमात्। |
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इच्छन्नोदिति तां वीक्ष्य तत्र स्यादितरेतरम्। |
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पितरं वीक्ष्य तत्रापि तथा भ्रातरमेव च। |
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एवं संबन्धसंसारबान्धवो विस्मरिष्यति। |
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अथ स्वमुत्तारयितुमाह्वयेज्जननीं मुहुः। |
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अप्यव्यक्तं प्रलपति यदा कुण्डलिनी तदा। |
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त्रिचतुःपञ्चषट्सप्ताष्टमो दशम एव च। |
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यदा त्रिंशोऽथ गुणयेत्तदा त्रिगुणिता विभुः। |
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तदा तां तारमित्याहुरोमात्मेति बहुश्रुताः। |
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त्रिगुणा सा त्रिदोषा सा त्रिवर्णा सा त्रयी च सा। |
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एतेषां तारणात्तारः शक्तिस्तद्धृतशक्तितः। |
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वाचिका जाग्रदादीनां करणानां च सा तदा। |
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पञ्चानामक्षराणां च वर्णानां मरुतां तथा। |
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तदा षड्गुणिताख्यस्य यन्त्रस्य च विभेदिनी। |
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भेदैरहाद्यैः शान्तान्तैर्भिद्यते सप्तभिः पृथक्। |
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नादः शक्तिश्च शान्तश्च तारभेदाः समीरिताः। |
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शक्तिशान्तौ च संप्रोक्ताः शक्तेर्भेदाश्च सप्तधा। |
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लोकाद्रिद्वीपपातालसिन्धुग्रहमुनिस्वरैः। |
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यदाष्टधा सा गुणिता तदा प्रकृतिभेदिनी। |
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दशधा गुणिता नाडी मर्माशादिविभेदिनी। |
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मन्त्रं च द्वादशार्णाख्यमभिधत्ते स्वरानपि। |
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पञ्चाशदंशगुणिताथ यदा भवेत्सा |