Preliminary Texts
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।।श्रीः।। |
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विवेकयुक्तबुद्ध्याहं जानाम्यात्मानमद्वयम्। |
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विवर्तोऽपि प्रपञ्चो मे सत्यवद्भाति सर्वदा। |
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एवं शिष्यवचः श्रुत्वा गुरुराहोत्तरं स्फुटम्। |
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गन्धमोक्षादयः सर्वे कृताः सत्येऽद्वये त्वयि। |
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सर्पादौ रज्जुसत्तेव ब्रह्मसत्तैव केवलम्। |
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यथेक्षुमभिसंव्याप्य शर्करा वर्तते तथा। |
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मरुभूमौ जलं सर्वं मरुभूमात्रमेव तत्। |
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ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्ताः प्राणिनस्त्वयि कल्पिताः। |
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तरङ्गत्वं ध्रुवं सिन्धुर्न वाञ्छति यथा तथा। |
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पिष्टं व्याप्य गुडं यद्वन्माधुर्यं न हि वाञ्छति। |
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दारिद्र्याशा यथा नास्ति संपन्नस्य तथा तव। |
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विषं दृष्ट्वामृतं दृष्ट्वा विषं त्यजति बुद्धिमान्। |
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घटावभासको भानुर्घटनाशे न नश्यति। |
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निराकारं जगत्सर्वं निर्मलं सच्चिदात्मकम्। |
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ब्रह्मादिकं जगत्सर्वं त्वय्यानन्दे प्रकल्पितम्। |
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न हि प्रपञ्चो न हि भूतजातं |
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सर्वं सुखं विद्धि सुदुःखनाशा |
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चिदेव देहस्तु चिदेव लोका |
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न मे बन्धो न मे मुक्तिर्न मे शास्त्रं न मे गुरुः। |
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राज्यं करोतु विज्ञानी भिक्षामटतु निर्भयः। |
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पुण्यानि पापकर्माणि स्वप्नगानि न जाग्रति। |
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कायः करोतु कर्माणि वृथा वागुच्यतामिह। |
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प्राणाश्चरन्तु तद्धर्मैः कामैर्वा हन्यतां मनः। |
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आनन्दाम्बुधिमग्नोऽसौ देही तत्र न दृश्यते। |
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इन्द्रियाणि मनः प्राणा अहंकारः परस्परम्। |
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आत्मानमञ्जसा वेद्मि त्वज्ञानं प्रपलायितम्। |
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चिदमृतसुखराशौ चित्तफेनं विलीनं |
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आनन्दरूपोऽहमखण्डबोधः |
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अस्थिमांसपुरीषान्त्रचर्मलोमसमन्वितः। |
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स्थूलदेहाश्रिता एते स्थूलाद्भिन्नस्य मे न हि। |
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क्षुत्पिपासान्ध्यबाधिर्यकामक्रोधादयोऽखिलाः। |
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अनाद्यज्ञानमेवात्र कारणं देहमुच्यते। |
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जडत्वप्रियमोदत्वधर्माः कारणदेहगाः। |
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जीवाद्भिन्नः परेशोऽस्ति परेशत्वं कुतस्तव। |
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अधिष्ठानं चिदाभासो बुद्धिरेतत्त्रयं यदा। |
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अधिष्ठानं न जीवः स्यात्प्रत्येकं निर्विकारतः। |
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प्रत्येकं जीवता नास्ति बुद्धेरपि जडत्वतः। |
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मायाभासो विशुद्धात्मा त्रयमेतन्महेश्वरः। |
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पूर्णत्वान्निर्विकारत्वाद्विशुद्धत्वान्महेश्वरः। |
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तस्मादेतत्त्रयं मिथ्या तदर्थो नेश्वरो भवेत्। |
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घटाकाशमठाकाशौ महाकाशे प्रकल्पितौ। |
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मायातत्कार्यविलये नेश्वरत्वं च जीवता। |
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सत्यचिद्धनमनन्तमद्वयं |
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पूर्णमद्वयमखण्डचेतनं |
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जन्ममृत्युसुखदुःखवर्जितं |
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उलूकस्य यथा भानावन्धकारः प्रतीयते। |
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यथा दृष्टिनिरोधार्तो सूर्यो नास्तीति मन्यते। |
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यथामृतं विषाद्भिन्नं विषदोषैर्न लिप्यते। |
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स्वल्पापि दीपकणिका बहुलं नाशयेत्तमः। |
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चिद्रूपत्वान्न मे जाड्यं सत्यत्वान्नानृतं मम। |
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कालत्रये यथा सर्पो रज्जौ नास्ति तथा मयि। |
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भानौ तमःप्रकाशत्वान्नाङ्गीकुर्वन्ति सज्जनाः। |
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यथा शीतं जलं वह्निसंबन्धादुष्णवद्भवेत्। |
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जलबिन्दुभिराकाशं न सिक्तं न च शुध्यति। |
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वृक्षोत्पन्नफलैर्वृक्षो यथा तृप्तिं न गच्छति। |
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स्थाणौ प्रकल्पितश्चोरः स स्थाणुत्वं न बाधते। |
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अज्ञाने बुद्धिविलये निद्रा सा भण्यते बुधैः। |
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बुद्धेः पूर्णविकासोऽयं जागरः परिकीर्त्यते। |
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सूक्ष्मनाडीषु संचारो बुद्धेः स्वप्नः प्रजायते। |
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परिपूर्णस्य नित्यस्य शुद्धस्य ज्योतिषो मम। |
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देशाभावात्क्व गन्तव्यं स्थानाभावात्क्व वा स्थितिः। |
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प्राणसंचारसंशोषात्पिपासा जायते खलु। |
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नाडीषु पीड्यमानासु वाय्वग्निभ्यां भवेत्क्षुधा। |
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शरीरस्थितिशैथिल्यं श्वेतलोमसमन्वितम्। |
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योषित्क्रीडा सुखस्यान्तर्गर्वाढ्यं यौवनं किल। |
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मूढबुद्धिपरिव्याप्तं दुःखानामालयं सदा। |
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एवं तत्त्वविचाराब्धौ निमग्नानां सदा नृणाम्। |