Preliminary Texts
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।।प्रबोधसुधाकरः।। |
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यं वर्णयितुं साक्षाच्छ्रुतिरपि मूकेव मौनमाचरति। |
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यद्यप्येवं विदितं तथापि परिभाषितो भवेदेव। |
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क्लृप्तैर्बहुभिरुपायैरभ्यासज्ञानभक्त्याद्यैः। |
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वैराग्यमात्मबोधो भक्तिश्चेति त्रयं गदितम्। |
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सा चाहंममताभ्यां प्रच्छन्ना सर्वदेहेषु। |
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देहः किमात्मकोऽयं कः संबंधोऽस्य वा विषयैः। |
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स्त्रीपुंसोः संयोगात्संपाते शुक्रशोणितयोः। |
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मातृगुरूदरदर्यां कफमूत्रपुरीषपूर्णायाम्। |
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दैवात्प्रसूतिसमये शिशुस्तिरश्चीनतां यदा याति। |
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अथवा यंत्रच्छिद्राद्यदा तु निःसार्यते प्रबलैः। |
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आधिव्याधिवियोगात्मीयविपत्कलहदीर्घदारिद्र्यैः। |
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नरपशुविहंगतिर्यग्योनीनां चतुरशीतिलक्षाणाम्। |
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चरमस्तत्र नृदेहस्तत्रोज्जन्मान्वयोत्पत्तिः। |
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आत्मानात्मविवेको नो देहस्य च विनाशिताज्ञानम्। |
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आयुःक्षणलवमात्रं न लभ्यते हेमकोटिभिः क्वापि। |
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नरदेहातिक्रमणात्प्राप्तौ पश्वादिदेहानाम्। |
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सततं प्रवाह्यमानैर्वृषभरैश्वैः खरैर्गजैर्महिषैः। |
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रुधिरत्रिधातुमज्जामेदोमांसास्थिसंहतिर्देहः। |
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नासाग्राद्वदनाद्वा कफं मलं पायुतो विसृजन्। |
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पथि पतितमस्थि दृष्ट्वा स्पर्शभयादन्यमार्गतो याति। |
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केशावधिनखराग्रादिदमंतः पूतिगंधसंपूर्णम्। |
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यत्नादस्य पिधत्ते स्वाभाविकदोषसंघातम्। |
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क्षतमुत्पन्नं देहे यदि न प्रक्षाल्यते त्रिदिनम्। |
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यो देहः सुप्तोऽभूत्सुपुष्पशय्योपशोभिते तल्पे। |
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सिंहासनोपविष्टं दृष्ट्वा यं मुदमवाप लोकोऽयम्। |
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एवंविधोऽतिमलिनो देहो यत्सत्तया चलति। |
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क्वात्मा सच्चिद्रूपः क्व मांसरुधिरास्थिनिर्मितो देहः। |
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भार्या रूपविहीना मनसः क्षोभाय जायते पुंसाम्। |
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यः कश्चित्परपुरुषो मित्रं भृत्योऽथवा भिक्षुः। |
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यं कंचित्पुरुषवरं स्वभर्तुरतिसुंदरं दृष्ट्वा। |
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एवं सुरूपनार्या भर्ता कोपात्प्रतिक्षणं क्षीणः। |
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वनिता नितांतमज्ञा स्वाज्ञामुल्लंघ्य वर्तते यदि सा। |
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लोको नापुत्रस्यास्तीति श्रुत्यास्य कः प्रभाषितो लोकः। |
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सर्वेऽपि पुत्रभाजस्तन्मुक्तौ संसृतिर्भवति। |
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तत्प्राप्त्युपायसत्त्वाद्द्वितीयपक्षेऽप्यपुत्रस्य। |
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नानाशरीरकष्टैर्धनव्ययैः साध्यते पुत्रः। |
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जीवन्नपि किं मूर्खः प्राज्ञः किंवा सुशीलभाग्भविता। |
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पितृमातृबंधुघाती मनसः खेदाय जायते पुत्रः। |
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सर्वगुणैरुपपन्नः पुत्रः कस्यापि कुत्रचिद्भवति। |
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पुत्रात्सद्गतिरिति चेत्तदपि प्रायोऽस्ति युक्त्यसहम्। |
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पितृमातृबंधुभगिनीपितृव्यजामातृमुख्यानाम्। |
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दैवं यावद्विपुलं यावत्प्रचुरः परोपकारश्च। |
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अश्नन्ति चेदनुदिनं बंदिन इव वर्णयन्ति संतृप्ताः। |
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दुर्भरजठरनिमित्तं समुपार्जयितुं प्रवर्तते चित्तम्। |
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लब्धश्चेदधिकोऽर्थः पत्न्यादीनां भवेत्स्वार्थैः। |
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अन्यायमर्थभाजं पश्यति भूतोऽध्वगामिनं चौरः। |
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पातकभरैरनेकैरर्थं समुपार्जयन्ति राजानः। |
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राज्यांतराभिगमनाद्रणभंगान्मंत्रिभृत्यदोषाद्वा। |
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मनोनिंदाप्रकरणम्। |
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किमपि द्वष्टि सरोषं ह्यात्मानं श्लाघते कदाचिदपि। |
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दंभाभिमानलोभैः कामक्रोधोरुमत्सरैश्चेतः। |
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तस्माच्छुद्धविरागो मनोऽभिलषितं त्यजेदर्थम्। |
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विषयनिग्रहप्रकरणम्। |
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छिद्रैर्नवभिरुपेतं जीवो नौकापतिर्महानलसः। |
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छिद्राणां तु निरोधात्सुखेन पारं परं याति। |
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पश्यति परस्य युवतिं सकाममपि तन्मनोरथं कुरुते। |
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पिशुनैः प्रकाममुदितां परस्य निंदा शृणोति कर्णाभ्याम्। |
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अनृतं परापवादं रसना वदति प्रतिक्षणं तेन। |
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विषयेंद्रिययोर्योगे निमेषसमयेन यत्सुखं भवति। |
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हेयमुपादेयं वा प्रविचार्य सुनिश्चितं तस्मात्। |
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धीवरदत्तमहामिषमश्नन्वैसारिणो म्रियते। |
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उरगग्रस्तार्धतनुर्भेकोऽश्नातीह मक्षिकाः शतशः। |
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मनोनिग्रहप्रकरणम्। |
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एवं मनः स्वहेतुं विचारयत्सुस्थिरं भवेदंतः। |
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वर्षास्वंभःप्रचयात्कूपे गुरुनिर्झरे पयः क्षारम्। |
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तद्वद्विषयोद्रिक्तं तमःप्रधानं मनः कलुषम्। |
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यं विषयमपि लषित्वा धावति बाह्येंद्रियद्वारा। |
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नगनगरदुर्गदुर्गमसरितः परितः परिभ्रमच्चेतः। |
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तुंबीफलं जलांतर्बलादधः क्षिप्तमप्युपैत्यूर्ध्वम्। |
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इह वा पूर्वभवे वा स्वकर्मणैवार्जितं फलं यद्यत्। |
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चेतः पशुमशुभपथं प्रधावमानं निराकर्तुम्। |
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निद्रावसरे यत्सुखमेतत्किं विषयजं यस्मात्। |
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अद्वारतुंगकुड्ये गृहेऽवरुद्धो यथा व्याघ्रः। |
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सर्वेंद्रियावरोधादुद्योगशतैरनिर्गमं वीक्ष्य। |
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प्राणस्पंदनिरोधात्सत्संगाद्वासनात्यागात्। |
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वैराग्यप्रकरणं। |
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दैवात्स्थितं गतं वा यं कंचिद्विषयमीड्यमल्पं वा। |
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ममताभिमानशून्यो विषयेषु पराङ्मुखः पुरुषः। |
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कुत्राप्यरण्यदेशे सुनीलतृणवालुकोपचिते। |
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तरवः पत्रफलाढ्याः सुगंधशीतानिलाः परितः। |
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वैराग्यभाज्यभाजः प्रसन्नमनसो निराशस्य। |
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द्रव्यं पल्लवतश्च्युतं यदि भवेत्क्वापि प्रमादात्तदा |
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विस्मृत्यात्मनिवासमुत्कटभवाटव्यां चिरं पर्यट |
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आत्मसिद्धिप्रकरणम्। |
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यद्यपि जलधेरुदकं यद्यपि वा प्रेरकोऽनिलस्त्र। |
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त्रेधा प्रतीतिरुक्ता शास्त्राद्गुरुतस्तथात्मनस्तत्र। |
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अग्रे गुरुप्रतीतिर्दूराद्गुडदर्शनं यद्वत्। |
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रसगंधरूपशब्दस्पर्शो अन्ये पदार्थाश्च। |
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मृतदेहेंद्रियवर्गो यतो न जानाति दाहजं दुःखम्। |
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मनसो यदि वा विषयस्तद्युगपत्किं न जानाति। |
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गाढध्वांतगृहांततः क्षितितले दीपं निधायोज्ज्वलं |
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तेजोंशेन पृथक्पदार्थनिवहज्ञानं हि यज्जायते |
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मायासिद्धिप्रकरणम्। |
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सोऽयमपीक्षांचक्रे ततो मनुष्या अजायन्त। |
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चिरमानंदानुभवात्सुषुप्तिरिव काप्यवस्थाऽभूत्। |
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सदसद्विलक्षणासौ परमात्मसदाश्रयानादिः। |
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माया तावददृश्या दृश्यं कार्यं कथं जनयेत्। |
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स्वप्ने सुरतानुभवाच्छुक्रद्रावो यथा शुभे वसने। |
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स्वप्ने पुरुषः सत्यो योषिदसत्या तयोर्युतिश्च मृषा। |
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एवमदृश्या माया तत्कार्यं जगदिदं दृश्यम्। |
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रजनीवातिदुरंता न लक्ष्यतेऽत्र स्वभावोऽस्याः। |
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माया ब्रह्मोपगताऽविद्या जीवाश्रया प्रोक्ता। |
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घटमठकुड्यैरावृतमाकाशं तत्तदाह्वयं भवति। |
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ननु कथमावरणं स्यादज्ञानं ब्रह्मणो विशुद्धस्य। |
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दिनकरकिरणोत्पन्नैर्मेघैराच्छाद्यते यथा सूर्यः। |
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अज्ञानेन तथात्मा शुद्धोऽपि च्छाद्यते सुचिरम्। |
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स्थूलं निरूपितं प्रागधुना सूक्ष्मादितो ब्रूमः। |
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सूक्ष्माणि महाभूतान्यसवः पंचेंद्रियाणि पंचैव। |
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तत्कारणं स्मृतं यत्तस्यांतर्वासनाजालम्। |
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तत्सारभूतबुद्धौ यत्प्रतिफलितं तु शुद्धचैतन्यम्। |
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चरतरतरंगसंगात्प्रतिबिंबं भास्करस्य च चलं स्यात्। |
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नन्वर्कप्रतिबिंबः सलिलादिषु यः स चावभासयति। |
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प्रतिफलितं यत्तेजः सवितुः कांस्यादिपात्रेषु। |
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चित्प्रतिबिंबस्तद्वद्बुद्धिषु यो जीवतां प्राप्तः। |
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अद्वैतप्रकरणम्। |
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येषां स भवत्यात्मा योऽन्यामथ देवतामुपास्ते यः। |
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इत्युपनिषदामुक्तिस्तथा श्रुतिभर्गवदुक्तिश्च। |
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ऋजु वक्रं वा काष्ठं हुताशदग्धं सदग्नितां याति। |
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प्रतिफलति भानुरेकोऽनेकशरावोदकेषु यथा। |
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दैवादेकशरावे भग्ने किं वा विलीयते सूर्यः। |
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स्वव्यापारं कुरुते यथैकसवितुः प्रकाशेन। |
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येनोदकेन कदलीचंपकजात्यादयः प्रवर्धन्ते। |
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एको हि सूत्रधारः काष्ठप्रकृतीरनेकशो युगपत्। |
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गुडखंडशर्कराद्या भिन्नाः स्युर्विकृतयो यथैकेक्षोः। |
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एवं पृथक्स्वभावं पृथगाकारं पृथग्वत्ति। |
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स्कंधधृतसिद्धमन्नं यावन्नाश्नाति मार्गगस्तावत्। |
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मानुषमतंगमहिषश्वसूकरादिष्वनुस्यूतम्। |
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कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रकरणम्। |
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लोहे हुतभुग्व्याप्ते लोहांतरताड्यमानेऽपि। |
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निष्ठुरकुठारघातैः काष्ठे संछेद्यमानेऽपि। |
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तनुसंबंधाज्जातैः सुखदुःखैर्लिप्यते नात्मा। |
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गेहांते दैववशात्कस्मिंश्चित्समुदिते विपन्ने वा। |
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स्वप्रकाशताप्रकरणम्। |
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चक्षुद्वारैव स्यात्परात्मना भानमेतेषाम्। |
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तत्राप्यक्षिद्वारा सहायभूतो न चेदात्मा। |
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सत्यात्मन्यपि किं नो ज्ञानं तच्चेंद्रियांतरेण स्यात्। |
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जानाति येन सर्वं केन च तं वा विजानीयात्। |
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नादानुसंधानम्। |
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सिद्ध्यारंभस्थिरताविश्रमविश्वासबीजशुद्धीनाम्। |
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भेरीमृदंगशंखाद्याहतनादे मनः क्षणं रमते। |
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चित्तं विषयोपरमाद्यथा यथा याति नैश्चल्यम्। |
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नादाभ्यंतर्वर्ति ज्योतिर्यद्वर्तते हि चिरम्। |
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परमानंदानुभवात्सुचिरं नादानुसंधानात्। |
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अद्वैतानंदभरात्किमिदं कोऽहं च कस्याहम्। |
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चिरतरमात्मानुभवादात्माकारं प्रजायते चेतः। |
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आत्मन्यनुप्रविष्टं चित्तं नोपेक्षते पुनर्विषयान्। |
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दृष्टौ द्रष्टरि दृश्ये यदनुस्यूतं च भानमात्रं स्यात्। |
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याति स्वसंमुखत्वं दङ्मात्रं वा यदा तदा भवति। |
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एकस्मिन्दृङमात्रे त्रेधा द्रष्टादिकं हि समुदेति। |
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दर्पणतः प्राक्पश्चादस्ति मुखं प्रतिमुखं तदाभाति। |
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प्रबोधः। |
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अथवा न भिन्नभावः कर्पूरामोदयोरेवम्। |
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यद्भावानुभवः स्यान्निद्रादौ जागरस्यांते। |
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अतिगंभीरेऽपारे ज्ञानचिदानंदसागरे स्फारे। |
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खरतरकरैः प्रदीप्तेऽभ्युदिते चैतन्यतिग्मांशौ। |
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अंतरदृष्टे यस्मिञ्जगदिदमारात्परिस्फुरति। |
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बाह्याभ्यंतरपूर्णः परमानंदार्णवे निमग्नो यः। |
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पूर्णात्पूर्णतरे परात्परतरेऽप्यज्ञातपारे हरौ। |
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द्विधाभक्तिः। |
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शुध्यति हि नांतरात्मा कृष्णपदांभोजभक्तिमृते। |
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यद्वत्समलादर्शे सुचिरं भस्मादिना शुद्धे। |
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जानन्तु तत्र बीजं हरिभक्त्या ज्ञानिनो ये स्युः। |
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इत्युपनिषत्तयोर्वा द्वौ भक्तौ भगवदुपदिष्टौ। |
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स्थूला सूक्ष्मा चेति द्वेधा हरिभक्तिरुद्दिष्टा। |
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स्वाश्रमधर्माचरणं कृष्णप्रतिमार्चनोत्सवो नित्यम्। |
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कृष्णकथासंश्रवणे महोत्सवः सत्यवादश्च। |
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ग्राम्यकथासूद्वेगः सुतीर्थगमनेषु तात्पर्यम्। |
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एवं कुर्वति भक्तिं कृष्णकथानुग्रहोत्पन्ना। |
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स्मृतिसत्पुराणवाक्यैर्यथाश्रुतायां हरेर्मूर्तौ। |
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प्रमितयदृच्छालाभे संतुष्टिर्दारपुत्रादौ। |
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मृदुभाषिता प्रसादो निजनिंदायां स्तुतौ समता। |
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निद्राहारविहारेष्वनादरः संगराहित्यम्। |
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केनापि गीयमाने हरिगीते वेणुनादे वा। |
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तस्मिन्ननुभवति मनः प्रगृह्यमाणं परात्मसुखम्। |
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जंतुषु भगवद्भावं भगवति भूतानि पश्यति क्रमशः। |
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ध्यानविधिः। |
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तिष्ठन्तं घननीलं स्वेतजसा भासयंतमिह विश्वम्। |
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आकर्णपूर्णनेत्रं कुंडलयुगमंडितश्रवणम्। |
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वलयांगुलीयकाद्यानुज्ज्वलयंतं स्वलंकारान्। |
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गुंजारवालिकलितं गुंजापुंजान्विते शिरसि। |
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मंदारपुष्पवासितमंदानिलसेवितं परानंदम्। |
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सुरभीकृतदिग्वलयं सुरभिशतैरावृतं सदा परितः। |
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पुण्यतमामतिसुरसां मनोभिरामां हरेः कथां त्यक्त्वा। |
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दौर्भाग्यमिंद्रियाणां कृष्णे विषये हि शाश्वतिके। |
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सगुणनिर्गुणयोरैक्यम्। |
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भूतेष्वंतर्यामी ज्ञानमयः सच्चिदानंदः। |
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ननु सगुणो दृश्यतनुस्तथैकदेशाधिवासश्च। |
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इतरे दृश्यपदार्था लक्ष्यन्तेऽनेन चक्षुषा सर्वे। |
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यद्विश्वरूपदर्शनसमये पार्थाय दत्तवान्भगवान्। |
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साक्षाद्यथैकदेशे वर्तुलमुपलभ्यते रवेर्बिंबम्। |
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यद्यपि साकारोऽयं तथैकदेशी विभाति यदुनाथः। |
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एको भगवान्रेमे युगपद्गोपीष्वनेकासु। |
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अथवा कृष्णाकारां स्वचमूं दुर्योधनोऽपश्यत्। |
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वक्षसि यदा जघान श्रीवत्सः श्रीपतेः स किं द्वेष्यः। |
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तस्मान्न कोऽपि शत्रुर्नो मित्रं नाप्युदासीनः। |
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नन्वात्मनः सकाशादुत्पन्ना जीवसंततिश्चेयम्। |
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वत्साहरणावसरे पृथग्वयोरूपवासनाभूपान्। |
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अग्नेर्यथा स्फुलिंगाः क्षुद्रास्तु व्युच्चरन्तीति। |
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यमुनातीरनिकुंजे कदाचिदपि वत्सकांश्च चारयति। |
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वत्सं निरीक्ष्य दूराद्गावः स्नेहेन संभ्रांताः। |
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प्रसवभरेण भूयः स्रुतस्तनाः प्राप्य पूर्ववद्वत्सान्। |
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गोपा अपि निजबालाञ्जगृहुर्मूर्धानमाघ्राय। |
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गोपा वत्साश्चान्या पूर्वं कृष्णात्मका ह्यभवन्। |
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प्रेयः पुत्राद्वित्तात्प्रेयोऽन्यस्माच्च सर्वस्मात्। |
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नन्वुच्चावचभूतेष्वात्मा सम एव वर्ततेऽथ हरिः। |
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बधिरांधपंगुमूका दीर्घाः खर्वाः सरूपाश्च। |
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भूतसमत्वं नृहरेः समो हि मशकेन नागेन। |
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आत्मा तावदभोक्ता तथैव ननु वासुदेवश्चेत्। |
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सुंदरमभिनवरूपं कृष्णं दृष्ट्वा विमोहिता गोप्यः। |
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गच्छन्त्यस्तिष्ठन्त्यो गृहकृत्यपराश्च भुंजानाः। |
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दुःसहविरहभ्रांत्या स्वपतीन्ददृशुस्तरून्नरांश्च पशून्। |
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कापि च कृष्णायन्ती कस्याश्चित्पूतनायन्त्याः। |
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तस्मान्निजनिजदयितान्कृष्णाकारान्व्रजस्त्रियो वीक्ष्य। |
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परमार्थतो विचारे गुडतन्मधुरत्वदृष्टांतात्। |
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किं पुनरनंतशक्तेर्लीलावपुरीश्वरस्येह। |
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मृद्भक्षणेन कुपितां विकसितवदनां स्वमातरं वक्त्रे। |
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अनुग्रहः। |
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अनयत्पृथुतरशकटं निजनिकटं वा कृतापराधमपि। |
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यमलार्जुनौ तरू उन्मूल्योलूखलगतश्चिरं खिन्नौ। |
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नित्यं त्रिदशद्वेषी येन च मृत्योर्वशीकृतः केशी। |
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गोगोपीगोपानां निकरमहिं पीडयन्तमतिवेगात्। |
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पीत्वारण्यहुताशनमसह्यतत्तेजसो हेतोः। |
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पातुं गोकुलमाकुलमशनितडिद्वर्षणैः कृष्णः। |
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त्रेधा वक्रशरीरामतिलंबोष्ठीं स्खलद्वपुर्वचनात्। |
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निहतः पपात हरिणा हरिचरणाग्रेण कुवलयापीडः। |
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युद्धमिषात्सह रंगे श्रीरंगेनांगसंगमं प्राप्य। |
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देहकृतादपराधाद्वैकुंठोत्कंठितांतरात्मानम्। |
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हरिसंदर्शनयोगात्पृथुरणतीर्थे निमज्जते तस्मै। |
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मीनादिभिरवतारैर्निहताः सुरविद्विषो बहवः। |
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ये यदुनंदननिहतास्ते तु न भूयः पुनर्भवं प्रापुः। |
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ब्रह्मांडानि बहूनि पंकजभवान्प्रत्यंडमत्यद्भुता |
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कृपापात्रं यस्य त्रिपुररिपुरंभोजवसतिः |
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मायाहस्तेऽर्पयित्वा भरणकृतिकृते मोहमूलोद्भवं मां |
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उदासीनः स्तब्धः सततमगुणः संगरहितो |
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नित्यानंदसुधाननिधेरधिगतः सन्नीलमेघः सता |
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चेतश्चंचलतां विहाय पुरतः संधाय कोटिद्वयं |
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पुत्रान्पौत्रमथ स्त्रियोऽन्ययुवतीर्वित्तान्यथोऽन्यद्धनं |
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काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित्फलं सेप्सितं |
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आश्रितमात्रं पुरुषं स्वाभिमुखं कर्षति श्रीशः। |
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अयमुत्तमोऽयमधमो जात्या रूपेण संपदा वयसा। |
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अंतःस्थभावभोक्ता ततोंऽतरात्मा महामेघः। |
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यद्यपि सर्वत्र समस्तथापि नृहरिस्तथाप्येते। |
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सुतरामनन्यशरणाः क्षीराद्याहारमंतरा यद्वत्। |
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यद्यपि गगनं शून्यं तथापि जलदामृतांशुरूपेण। |
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तद्वद्व्रजतां पुंसां दृग्वाङ्मनसामगोचरोऽपि हरिः। |