Preliminary Texts
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।।श्रीः।। |
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न त्वं देहोऽसि दृश्यत्वादुपजात्यादिमत्त्वतः। |
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अदृश्यो रूपहीनस्त्वं जातिहीनोऽप्यभौतिकः। |
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न भवानिन्द्रियाण्येषां करणत्वेन या श्रुतिः। |
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नानैतान्येकरूपस्त्वं भिन्नस्तेभ्यः कुतः श्रृणु। |
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न तेषां समुदायोऽसि तेषामन्यतमस्य च। |
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प्रत्येकमपि तान्यात्मा नैव तत्र नयं श्रृणु। |
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नानात्माभिमतं नैव विरुद्धविषयत्वतः। |
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न मनस्त्वं न वा प्राणो जडत्वादेव चैतयोः। |
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क्षत्तृड्भ्यां पीडितः प्राणो ममायं चेति भेदतः। |
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सुप्तौ लीनास्ति या बोधे सर्वं व्याप्नोति देहकम्। |
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नानारूपवती बोधे सुप्तौ लीनातिचञ्चला। |
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सुप्तौ देहाद्यभावेऽपि साक्षी तेषां भवान्यतः। |
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प्रमाणं बोधयन्तं तं बोधं मानेन ये जनाः। |
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विश्वमात्मानुभवति तेनासौ नानुभूयते। |
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ईदृशं तादृशं नैतन्न परोक्षं सदेव यत्। |
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इदंत्वेनैव यद्भाति सर्वं तच्च निषिध्यते। |
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सत्यं ज्ञानमनन्तं च ब्रह्मलक्षणमुच्यते। |
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सति देहाद्युपाधौ स्याज्जीवस्तस्य नियामकः। |
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अपेक्ष्यतेऽखिलैर्मानैर्न यन्मानमपेक्षते। |
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अतो हि तत्त्वमस्यादिवेदवाक्यं प्रमाणतः। |
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शोधिते त्वंपदार्थे हि तत्त्वमस्यादि चिन्तितम्। |
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देहेन्द्रियादिधर्मान्यः स्वात्मन्यारोपयन्मृषा। |
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देहेन्द्रियादिसाक्षी यस्तेभ्यो भाति विलक्षणः। |
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वेदान्तवाक्यसंवेद्यविश्वातीताक्षराद्वयम्। |
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सामानाधिकरण्यं हि पदयोस्तत्त्वमोर्द्वयोः। |
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भिन्नप्रवृत्तिहेतुत्वे पदयोरेकवस्तुनि। |
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सामानाधिकरण्यं तत्संप्रदायिभिरीरितम्। |
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अयं सः सोऽयमितिवत्संबन्धो भवति द्वयोः। |
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परस्परविरुद्धं स्यात्ततो भवति लक्षणा।। |
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मानान्तरोपरोधाच्च मुख्यार्थस्यापरिग्रहे। |
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त्रिविधा लक्षणा ज्ञेया जहत्यजहती तथा। |
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वाच्यार्थमखिलं त्यक्त्वा वृत्तिः स्याद्या तदन्विते। |
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वाच्यार्थस्यैकदेशस्य प्रकृते त्याग इष्यते। |
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वाच्यार्थमपरित्यज्य वृत्तिरन्यार्थके तु या। |
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न संभवति साप्यत्र वाच्यार्थेऽतिविरोधतः। |
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वाच्यार्थस्यैकदेशं च परित्यज्यैकदेशकम्। |
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सोऽयं विप्र इदं वाक्यं बोधयत्यादितस्तथा। |
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अतस्तयोर्विरुद्धं तत्तत्कालत्वादिधर्मकम्। |
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तथैव प्रकृते तत्त्वमसीत्यत्र श्रुतौ शृणु। |
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सर्वज्ञत्वपरोक्षादीन्परित्यज्य ततःपदात्। |
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तत्त्वमोः पदयोरैक्यमेव तत्त्वमसीत्यलम्। |
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अहं ब्रह्मेति विज्ञानं यस्य शोकं तरत्यसौ। |
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तत्त्वमोर्बोध्यतेऽथापि पौर्वापर्यानुसारतः। |
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अपरोक्षयितुं लोके मूढैः पण्डितमानिभिः। |
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वेदवाक्यैरतः किं स्याद्गुरुणेति न सांप्रतम्। |
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अनादाविह संसारे बोधको गुरुरेव हि। |
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अद्वैते ब्रह्मणि स्थेयं प्रत्यग्ब्रह्मात्मना सदा। |
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प्रतिपाद्यं तदेवात्र वेदान्तैर्न द्वयं जडम्। |
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वेदान्तैस्तद्द्वयं सम्यङ्निर्णीतं वस्तुतो नयात्। |
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शुद्धे कथमशुद्धः स्याद्दृश्यं मायामयं ततः। |
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विद्यते न स्वतः सत्त्वं नासतः सत्त्वमस्ति वा। |
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सदसन्न विरुद्धत्वादतोऽनिर्वाच्यमेव तत्। |
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प्रविष्टो जीवरूपेण स एवात्मा भवान्परः। |
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जीवभावमनुप्राप्तः स एवात्मासि बोधतः। |
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कर्तृत्वादीनि यान्यासंस्त्वयि ब्रह्माद्वये परे। |
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अत्रैव श्रृणु वृत्तान्तमपूर्वं श्रुतिभाषितम्। |
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स्वगृहे स्वाङ्गणे सुप्तः प्रमत्तः सन्कदाचन। |
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बद्ध्वा देशान्तरं चौरैर्नीतः सन्गहने वने। |
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निक्षिप्तो विपिनेऽतीव कुशकण्टकवृश्चिकैः। |
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व्यालादिदुष्टसत्त्वेभ्यो महारण्ये भयातुरः।। |
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क्रियमाणे विलुठने विशीर्णाङ्गोऽसमर्थकः। |
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बन्धमुक्तौ तथा देशप्राप्तावेव सुदुःखधीः। |
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तथा रागादिभिर्वर्गैः शत्रुभिर्दुःखदायिभिः। |
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ब्रह्मानन्दे प्रमत्तः स्वाज्ञाननिद्रावशीकृतः। |
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अद्वयानन्दरूपात्त्वां प्रच्याव्यातीव धूर्तकैः। |
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सर्वदुःखनिदानेषु शरीरादित्रयेषु च। |
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प्रवेशितोऽसि सृष्टोऽसि बद्धः स्वानन्ददृष्टितः। |
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जन्ममृत्युजरादोषनरकादिपरम्पराम्।। |
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अविद्याभूतबन्धस्य निवृत्तौ दुःखदस्य च। |
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यथा गान्धारदेशीयश्चिरं दैवाद्दयालुभिः। |
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सः स्वस्थैरुपदिष्टश्च पण्डितो निश्चितात्मकः। |
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गत्वा गान्धारदेशं स स्वगृहं प्राप्य पूर्ववत्। |
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त्वमप्येवमनेकेषु दुःखदायिषु जन्मसु। |
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वर्णाश्रमाचारपरोऽवाप्तपुण्यमहोदयः। |
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विधिवत्कृतसंन्यासो विवेकादियुतः सुधीः। |
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पण्डितस्तत्र मेधावी युक्त्या वस्तु विचारयन्। |
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अतो ब्रह्मात्मविज्ञानमुपदिष्टं यथाविधि। |
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भूत्वा विमुक्तबन्धस्त्वं छिन्नद्वैतात्मसंशयः। |
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वस्तुतो निष्प्रपञ्चोऽसि नित्यमुक्तः स्वभावतः। |
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न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः। |
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श्रुतिसिद्धान्तसारोऽयं तथैव त्वं स्वया धिया। |
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साक्षात्कृत्वा परिच्छिन्नाद्वैतब्रह्माक्षरं स्वयम्। |
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विचारणीया वेदान्ता वन्दनीयो गुरुः सदा। |
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गुरुर्ब्रह्म स्वयं साक्षात्सेव्यो वन्द्यो मुमुक्षुभिः। |
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यावदायुस्त्वया वन्द्यो वेदान्तो गुरुरीश्वरः। |
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भावाद्वैतं सदा कुर्यात्क्रियाद्वैतं न कर्हिचित्। |