Comprehensive Texts
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अकचटतपयाद्यैः सप्तभिर्वर्णवर्गै |
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अथाभवन्ब्रह्महरीश्वराख्याः |
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स्वनिष्पत्तिं च कृत्यं च ते विचिन्त्य समाविदन्। |
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मूर्त्याभासेन दुग्धाब्धौ झषशङ्खसमाकुले। |
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उद्यदादित्यकिरणप्रशांन्तशिशिरोदये। |
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अनन्तभोगे विमले फणायुतविराजिते। |
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तुष्टुवुर्हृष्टमनसो विष्टरश्रवसं विभुम्। |
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नीलोत्पलदलप्रख्यां नीलकुञ्चितमूर्धजाम्। |
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रक्तारविन्दनयनामुन्नसीमरुणाधराम्। |
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कम्बुग्रीवां पृथुद्व्यंसविसरद्भुजमण्डलाम्। |
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हारतारावलीराजत्पृथूरोव्योममण्डलाम्। |
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लसदौदरिकाबन्धभास्वरां संभृतोदरीम्। |
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पृथुवृत्तोरुमापूर्णजानुमण्डलबन्धुराम्। |
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तनुदीर्घाङ्गुलीभास्वन्नखराजिविराजिताम्। |
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तां दृष्ट्वा तरलात्मानो विध्यधोक्षजशंकराः। |
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स्वामिन्प्रसीद विश्वेश के वयं केन भाविताः। |
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इति पृष्टः परं ज्योतिरुवाच प्रमिताक्षरम्। |
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तैरेव विकृतिं यातास्तेषु वो जायते लयः। |
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अक्षरं नाम किं नाथ कुतो जातं किमात्मकम्। |
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मूलार्णमर्णविकृतीर्विकृतेर्विकृतीरपि। |
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वैदिकांस्तान्त्रिकांश्चैव सर्वानित्थमुवाच ह। |
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अणोरणीयसी स्थूलात्स्थूला व्याप्तचराचरा। |
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न श्वेतरक्तपीतादिवर्णैर्निर्धार्य सोच्यते। |
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अन्तरान्तर्बहिश्चैव देहिनां देहपूरणी। |
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ययाकाशस्तमो वापि लब्धा या नोपलभ्यते। |
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प्रधानमिति यामाहुर्या शक्तिरिति कथ्यते। |
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साहं यूयं तथैवान्यद्यद्वेद्यं तत्तु सा स्मृता। |
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सैवं स्वां वेत्ति परमा तस्या नान्योऽस्ति वेदिता। |
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लवादिप्रलयान्तोऽयं कालः प्रस्तूयते ह्यज। |
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दले दले तु यः कालः स कालो लववाचकः। |
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काष्ठा तावत्कला ज्ञेया तावत्काष्ठो निमेषकः। |
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कालेन यावता स्वीयो हस्तः स्वं जानुमण्डलम्। |
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षष्ट्युत्तरैस्तु त्रिशतैर्निश्वासैर्नाडिका स्मृता। |
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त्रिंशद्भिरप्यहोरात्रैर्मासो द्वादशभिस्तु तैः। |
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तथा दिव्यैरहोरात्रैस्त्रिशतैः षष्टिसंयुतैः। |
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भवेद्द्वादशसाहस्रैर्भिन्नैरेकं चतुर्युगम्। |
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तावती तव रात्रिश्च कथिता कालवेदिभिः। |
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तथाविधैर्द्वादशभिर्मासैरब्दस्तव स्मृतः। |
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तवायुर्मम निश्वासः कालेनैवं प्रचोद्यते। |
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सोऽन्वीक्ष्य त्वादृशामायुः परिपाकं प्रदास्यति। |
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सा तत्त्वसंज्ञा चिन्मात्रज्योतिषः संनिधेस्तथा। |
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कालेन भिद्यमानस्तु स बिन्दुर्भवति त्रिधा। |
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स बिन्दुनादबीजत्वभेदेन च निगद्यते। |
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स रवः श्रुतिसंपन्नैः शब्दब्रह्मेति कथ्यते। |
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अव्यक्तादन्तरुदितविभेदगहनात्मकम्। |
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भूतादिकवैकारिकतैजसभेदक्रमादहंकारात्। |
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शब्दाद्व्योम स्पर्शतस्तेन वायु |
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खमपि सुषिरचिह्नमीरणः स्या |
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वृत्तं व्योम्नो बिन्दुषट्काञ्चितं |
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निवृत्तिसंज्ञा च तथा प्रतिष्ठा |
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पुटयोरुभयोश्च दण्डसंस्था |
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व्योम्नि मरुदत्र दहनस्तत्रापस्तासु संस्थिता पृथिवी। |
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श्रोत्रत्वगक्षिजिह्वाघ्राणान्यपि चेन्द्रियाणि बुद्धेः स्युः। |
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वचनादाने सगती सविसर्गानन्दकौ च संप्रोक्ताः। |
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भूतेन्द्रियेन्द्रियार्थैरुद्दिष्टस्तत्त्वपञ्चविंशतिकः। |
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करणोपेतैरेतैस्तत्त्वान्युक्तानि रहितवचनाद्यैः। |
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अव्यक्तमहदहंकृतिभूतानि प्रकृतयः स्युरष्टौ च। |
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सत्त्वं रजस्तम इति संप्रोक्ताश्च त्रयोगुणास्तस्याः। |
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देवाः सश्रुतयः स्वराः समरुतो लोकाश्च वैश्वानराः |
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एष सर्गः समुत्पन्न इत्थं विश्वं प्रतीयते। |
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शब्दब्रह्मेति यत्प्रोक्तं तदुद्देशः प्रवर्त्यते। |
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शब्दब्रह्मेति शब्दावगम्यमर्थं विदुर्बुधाः। |
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स तु सर्वत्र संस्यूतो जाते भूताकरे पुनः। |
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प्रकृतौ कालनुन्नायां गुणान्तःकरणात्मनि। |
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औद्भिदः स्वेदजोऽण्डोत्थश्चतुर्थस्तु जरायुजः। |
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निर्दिष्टस्कन्धविटपपत्रपुष्पफलादिभिः। |
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अम्बुयोन्यग्निपवननभसां समवायतः। |
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यूकमत्कुणकीटाणुस्त्रुट्याद्याः क्षणभङ्गुराः। |
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कालेन भिन्नात्पूर्णात्मा निर्गच्छन्प्रक्रमिष्यति। |
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जरायुजस्तु ग्राम्यातः क्रियातः स्त्र्यतिसंभवः। |
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स्वस्थानतश्च्युताच्छुक्लाद्बिन्दुमादाय मारुतः। |
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आर्तवात्परमं बीजमादायास्याश्च मूलतः। |
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मायीयं नाम योषोत्थं पौरुषं कार्मणं मलम्। |
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सूक्ष्मरूपाणि तत्त्वानि चतुर्विंशन्मलद्वये। |
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संक्षोभ्य संवर्धयति तन्मलं शोणिताधिकम्। |
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स्वगाभिर्मरुदग्न्यद्भिः क्लेद्यते क्वाथ्यते च तत्। |
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आयामि बुद्बुदाकारं परेऽहनि विजृम्भते। |
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मिलितादपि तस्मात्तु पृथगेव मलद्वयात्। |
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ऊर्ध्वं तु मरुता नुन्नं तस्मादपि फलद्वयात्। |
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अवाङ्मुखी सा तस्याश्च भवेत्पक्षद्वये द्वयम्। |
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ततो या प्रथमा नाडी सा सुषुम्नेति कथ्यते। |
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या वाममुष्कसंबन्धा सा श्लिष्यन्ती सुषुम्नया। |
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वामांसजत्र्वन्तरगा दक्षिणां नाडिकामियात्। |
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अन्या धमन्यो याः प्रोक्ता गान्धारीहस्तिजिह्विका। |
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कुहूरिति च विद्वद्भिः प्रधाना व्यापिकास्तनौ। |
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यथा तत्पुष्टिमाप्नोति केदार इव कुल्यया। |
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क्रमवृद्धौ परंज्योतिष्कला क्षेत्रज्ञतामियात्। |
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सदोषं दूष्यसंपन्नं जन्तुरित्यभिधीयते। |
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नपुंसकस्य किंचित्तु व्यक्तिरत्रोपलक्ष्यते। |
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शाखोपशाखतां प्राप्ताः सिरालक्षत्रयात्परम्(?)। |
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तद्भेदांश्च बहूनाहुस्ताभिः सर्वाभिरेव च। |
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देहेऽपि मूलाधारे तु समुदेति समीरणः। |
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अहोरात्रमिनेन्दुभ्यामूर्ध्वाधोवृत्तिरुच्यते। |
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अत्रापि चेतनायातोरागतिं बहुधा विदुः। |
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आहाराद्रसजं प्राहुः केचित्कर्मफलं विदुः। |
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कश्चित्कर्मप्रकारज्ञः पितुर्देहात्मनासकृत्। |
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तत्परंधाम सौजस्कं संक्रान्तं मारुतेन तु। |
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कश्चित्तु भौतिकव्याप्ते जन्मकाले वपुष्यथ। |
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बहुना किं पुनः पुंसः सांनिध्यात्प्रविजृंभिता। |
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पञ्चभूतमयी सप्तधातुभिन्ना च भौतिकैः। |
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पञ्चेन्द्रियार्थगा भूयः पञ्चबुद्धिप्रभाविनी। |
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परेण धाम्ना समनुप्रबद्धा |
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स्याद्बुद्धिसंज्ञा च यदा प्रवेत्ति |
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यदा स्वयं व्यञ्जयितुं यतेत |