Comprehensive Texts
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अथ प्रवक्ष्ये विधिवन्मनूनां |
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दद्याच्च दिव्यभावं |
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दैवादिकस्याप्यथ मानुषादेः |
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शुभकर्मणि दीक्षायां |
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अभवत्पुराथ किल वास्तुपुमा |
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तद्देहसंस्थिता ये |
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कृत्वावनिं समतलां चतुरश्रसंस्था |
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प्राग्याम्यवारुणोद |
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कोणद्वयार्धकोष्ठे |
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अश्रेः पार्श्वोत्थपद |
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अर्धपदाद्यन्तासु च |
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ईशानाख्यः स पर्जन्यो जयन्तः शक्रभास्करौ। |
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अग्निः पूषा च वितथो यमश्च ग्रहरक्षकः। |
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निःऋतिदौवारिकश्चैवः सुग्रीवो वरुणस्तथा। |
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वायुर्नागश्च मुख्यश्च सोमो भल्लाट एव च। |
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इतीरितानामपि देवतानां |
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भूयो भूमितले समे विरहिते लोमास्थिलोष्टादिभिः |
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सप्ताहतो वा नवरात्रतो वा |
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अन्यस्मिन्भवने सुसंवृततरे शुद्धे स्थले मण्डलं |
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वैष्णव्यस्त्वथ पालिका अपि चतुर्विंशाङ्गुलोच्छ्रायकाः |
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पृथगपि शालीतण्डुल |
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शालीकङ्गुश्यामा |
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प्रक्षाल्य तानि निवपेदभिमन्त्र्य मूल |
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हारिद्राद्भिः सम्यगभ्युक्ष्य वस्त्रै |
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भूतपितृयक्षनाग |
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लाजतिलनक्तरजो |
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केरोदसक्तुपिष्टं |
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कृसरं च वैष्णवेयं |
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पात्राणि त्रिविधान्यपि |
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प्रागेव लक्षणयुतानि च मण्टपेऽस्मि |
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चतुरश्रमर्धशशिबिम्बविलसितमथ त्रिकोणकम्। |
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विंशद्भिश्चतुरधिकाभिरङ्गलीभिः |
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सत्त्वपूर्विकगुणान्विताः क्रमा |
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योनिस्तत्पश्चिमस्यामथ दिशि चतुरश्रस्थलारब्धनाळा |
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अथवा दिशि कुण्डमुत्तरस्यां |
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ततो मण्टपमध्ये तु स्थण्डिलं गोमयाम्बुना। |
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सूत्रं प्राक् प्रत्यगात्ताग्रं विप्राशीर्वचनैः सह। |
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तन्मध्यस्थितयाम्योदगग्रं सूत्रं निधापयेत्। |
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सूत्रेषु मकरान्न्यस्येत्स्पष्टानन्योन्यतः समात्। |
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कोणमत्स्यस्थिताग्राणि दिक्षु सूत्राणि पातयेत्। |
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तत्राग्निमारुतं सूत्रं नैःऋतेशं निपातयेत्। |
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निहिताग्रयुगं सूत्रं चतुष्कं प्रतिपातयेत्। |
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एषु प्राग्वारुणात्सूत्रान्याम्योदीच्यां निपातयेत्। |
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यदा तदाजो विभजेत्पदानि क्रमशः सुधीः। |
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तैरष्टचत्वारिंशद्भी राशिः स्याद्वीथ्यशीतिभिः। |
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द्वाराणि पदषट्काणि शोभाख्याः स्युश्चतुष्पदाः। |
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वृत्तवीथ्योरारचयेन्मध्ये सूत्रचतुष्टयम्। |
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निहिताग्रयुगं सूत्रं तद्भवेद्राशिमण्डलम्। |
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दलाग्रवृत्तराशीनां वीथ्याः शोभोपशोभयोः। |
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भवेन्मण्डलमध्यार्धे कर्णिका चतुरङ्गुला। |
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तथा दलानां मानं तदग्रद्व्यङ्गुलकं भवेत्। |
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ततश्च राशिचक्रं स्यात्स्वं स्वं वर्णविभूषितम्। |
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द्वात्रिंशदङ्गुलं ह्येतत्परस्तात्तावदिष्यते। |
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यदि वा वर्तुलमराः स्युश्च द्वादशराशयः। |
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चक्रं च चतुरश्रं च त्र्यश्रा द्वादशराशयः। |
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तद्बही रुचिरान्कुर्याच्चतुरान्कल्पशाखिनः। |
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जलजैः स्थलजैर्वापि सुमनोभिः समन्वितान्। |
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मयूरचक्रवाकाद्यैरारूढविटपानतान्। |
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तद्बहिः पार्थिवं कुर्यान्मण्डलं कृष्णकोणकम्। |
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राशेरन्यत्र रचयेत्प्रमोहादन्यमण्डलम्। |
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उभाभ्यां लभते शापं मन्त्री तरलदुर्मतिः। |
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कृतं समस्तं व्यर्थं स्यादज्ञेन ज्ञानमानिना। |
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अवगम्यानुरूपाणि मण्डलानि च मान्यधीः। |
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रजांसि पञ्चवर्णानि पञ्चद्रव्यात्मकानि च। |
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हारिद्रं स्याद्रजः पीतं तण्डुलं च सितं भवेत्। |
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कृष्णं दग्धपुलाकोत्थं श्यामं बिल्वदलादिजम्। |
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अङ्गुलोत्सेधविस्ताराः सर्वमण्डलकर्मसु। |
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दलान्यच्छान्यन्तरालं श्यामचूर्णेन पूरयेत्। |
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नानावर्णविचित्रा स्युश्चित्राकाराश्च वीथयः। |
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राशिचक्रावशिष्टानि कोणानि श्रृणु यानि वै। |
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अथवारुणानि च दलानि तथा |